समझौतों से कम हो सकता सरकारी मुकदमों का बोझ
आलोक शर्मा, कानपुर
08/04/10 | Comments [0]
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अदालतों में जनता ही नहीं बल्कि सरकार के खिलाफ भी हजारों मुकदमे लंबित हैं जिसमें फर्म विवाद, भूमि अधिग्रहण, सरकारी आवासों व संविदा संबंधी विवाद शामिल हैं। इन्हें आर्बीट्रेशन प्रक्रिया (आपसी सुलह समझौता) से हल किया जा सकता है लेकिन अदालतों में जाने के बाद मुकदमों में तारीख और समय दोनों लगता है।
  एक अनुमान के मुताबिक नगर में केंद्रीय और राज्य सरकार के डेढ़ सौ से अधिक विभागों में सवा लाख से अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं। 2000 से अधिक मामले सिविल और फौजदारी की अदालतों में विचाराधीन हैं। अधिवक्ताओं का मानना है कि इनके निस्तारण के लिए सरकार को आर्बीट्रेशन का रास्ता अपनाना चाहिए ताकि सरकारी मुकदमेबाजी खत्म हो। सरकार के साथ विवाद के चलते भूमि अधिग्रहण, सरकारी आवास, संविदा विवाद सिविल अदालतों में दाखिल होते हैं। भविष्य निधि, ईएसआई व आयकर से जुड़े मामले फौजदारी अदालतों में सुने जाते हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता रमाकांत मिश्रा मानते हैं कि सरकारी मुकदमेबाजी के चलते भी अदालतों में बोझ बढ़ रहा है। हालांकि इसके लिए सरकार को शहर में न्यायाधिकरण की स्थापना करनी चाहिए ताकि आर्बीट्रेशन एक्ट की मदद से उन्हें कम किया जा सके। बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष सुरेंद्र प्रताप सिंह भी इससे सहमत हैं। उनके मुताबिक इसमें बेवजह सरकार का पैसा और समय बर्बाद होता है।
  सरकारी कर्मचारियों की बर्खास्तगी, प्रोन्नति, वेतन व सेवा संबंधी विवाद को सुनने के लिए केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट) का गठन किया गया। इसकी शाखा कानपुर में खोलने का प्रस्ताव आया किंतु किन्हीं कारणों से उसे इलाहाबाद में बनाया गया। बाद में लखनऊ में भी शाखा खोली गयी। केंद्रीय कर्मचारी नेता राजेश शुक्ला का कहना है कानपुर में केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में काम करने वाले 40 हजार और राज्य के 80 हजार से अधिक कर्मचारी हैं। इतनी अधिक संख्या में कर्मचारियों के होने के नाते विवाद भी होते हैं उनके निराकरण के लिए उन्हें इलाहाबाद (कैट) तक दौड़ना पड़ता है। कुछ वाद केंद्रीय श्रमायुक्त के यहां भी दाखिल होते हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता कौशल किशोर शर्मा ने बताया कि शहर में कैट शाखा खोलने के लिए दस साल तक प्रत्येक शनिवार को अदालतों का बहिष्कार किया गया किंतु कोई परिणाम नहीं निकला।
  - मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विसेज (एमईएस) में केबिल सप्लाई करने वाली एक फर्म का लेनदेन को लेकर विवाद हुआ। 2001 में एमईएस के चीफ इंजीनियर को आर्बीट्रेटर नियुक्त किया गया। फर्म को 20 लाख रुपए देने की बात तय हुयी। सरकार की ओर से अपील कर दी गयी जिस पर 2004 में हाइकोर्ट के आदेश के बाद सरकार को 53 लाख रुपए भुगतान करना पड़ा। फर्म अभी भी ब्याज के 26 लाख रुपए और दिए जाने का दावा कर रही है। अपील उच्च न्यायालय में लंबित है। -फतेहपुर के 78 वर्षीय धनंजय अवस्थी की जमीन का नेशनल हाइवे बनाने के लिए अधिग्रहीत किया गया। मुआवजा कम मिलने पर उन्होंने 2001 में मुकदमा दाखिल कर दिया। उसके बाद इसकी अपील फतेहपुर जिला जज की अदालत में की गयी।


  

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