सबकी हो एकाउंटिबिलिटी
एएन त्रिपाठी
08/04/10 | Comments [0]
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भारतीय संदर्भ में वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों आदि ग्रंथों में न्याय के विभिन्न आचार्यो, न्यायाधीशों के गुणों एवं न्याय की आवश्यकता को वर्णित किया गया है। न्यायाधीश को ईमानदार, नीर-क्षीर विवेचक, मानवीय संवेदना एवं आदर्श चरित्र से ओतप्रोत होना चाहिये। कोई भी व्यक्ति यदि न्याय के विपरीत कार्य करता है, वह दंड का भागी होता है। यहां तक कि राजा भी न्याय के विपरीत कार्य करने पर दण्ड का भागी होता है, परंतु आज की न्यायिक व्यवस्था में इसे स्पष्ट रूप से पारिभाषित नहीं किया गया है। इसके दुष्परिणाम के रूप में तमाम तरह की घटनाएं प्रकाश में आ रही हैं।  भारतीय संविधान में न्यायपालिका को एकीकृत व्यवस्था का रूप दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा किये जाने की व्यवस्था है एवं जिला जजों की नियुक्ति अनुच्छेद 233 के अनुसार राज्यपाल, जो राष्ट्रपति का प्रतिनिधि है, द्वारा उच्च न्यायालय की राय से की जाती है। अनुच्छेद 235 के द्वारा जिला अदालतों एवं उनके अधीनस्थ न्यायालयों का नियंत्रण उच्च न्यायालय के हाथों होता है, साथ ही अनुच्छेद 226-227 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय का नियंत्रण राज्य अंतर्गत सारे न्यायालयों एवं ट्रिब्यूनलों पर होता है।
परन्तु न्यायालयों की साख बचाने एवं भ्रष्ट्राचार के रोग को रोकने के उपाय भारतीय संविधान में नगण्य है। शायद संविधान निर्माताओं ने यह कल्पना न की हो कि न्यायाधीश के पद पर आसीन व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त भी हो सकता है। उच्चतम न्यायालय के जज को अनुच्छेद 124 के प्रावधानों के अनुसार एवं उच्च न्यायालय के जज को अनुच्छेद 217 के प्रावधानों के अनुसार केवल महाभियोग के द्वारा हटाया जा सकता है जिसकी प्रक्रिया लंबी एवं पेचीदगी वाली है। अधूरी एवं त्रुटिपूर्ण संवैधानिक व्यवस्था के कारण भारतीय संविधान के लागू होने के 60 वर्ष बाद आज तक किसी भी उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के जज को नहीं हटाया जा सका। हाल के कुछ वर्षो में स्वयं कुछ न्यायाधीशों द्वारा न्यायपालिका के ऊपर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगाये जा रहे हैं एवं वर्तमान समय में उच्च न्यायालयों के कई जजों पर आरोप लगाये गए हैं। अत: भ्रष्टाचार को रोकने एवं न्यायपालिका की साख बचाने के लिये तुरन्त संविधान में संशोधन एवं न्यायाधीशों के आचरण एवं नियंत्रण के लिए अलग से विधान बनाना जरूरी हो गया है। वैसे 1990 से इसके लिए प्रयत्न हो रहे हैं परन्तु आज तक वे दृष्टिगोचर नहीं हुए। वर्तमान सरकार ने ज्युडिशियल स्टैंडर्ड एवं एकाउन्टिबिलिटी बिल के द्वारा एक्ट बनाने की बात की है परन्तु प्राइम मिनिस्टर ने जूरिस्टों से सम्पर्क करने एवं जल्दबाजी नहीं करने का संदेश दे दिया है। अत: निकट भविष्य में इसके आने की संभावना नहीं लग रही है।
लार्ड मैकाले द्वारा बनाये गए इंडियन पैनल कोड 1860 के चैप्टर 11 में झूठी गवाही एवं पब्लिक जस्टिस के विरुद्ध किये गये अपराधों एवं उनकी सजा के संबंध में धारा 191 से लेकर धारा 229 में विस्तृत रूप से व्यवस्था है। विशेषकर धारा 219 में ज्युडिशियल प्रोसीडिंग में भ्रष्टाचार से प्रेषित गलत आदेश एवं निर्णय के लिए सात वर्ष की सजा का प्रावधान भी दिया गया है परन्तु यह संविधान से पहले का होने के कारण निचली अदालतों पर ही लागू है एवं ऐसा केस देखने में आज तक नहीं आया।
आर्थिक भ्रष्टाचार को दूर करने के लिये आय से अधिक अर्जित सम्पत्तियों को जब्त करने के लिए कानून समान रूप से लागू होने पर भ्रष्टाचार से समाज को मुक्ति मिल सकती है एवं न्याय पालिका की साख पर आंच नहीं आ पाएगी। इसके लागू होने पर अन्य प्रकार के मानव जनित कदाचार भी कम हो जाएंगे एवं आम जनमानस में भी सार्थक संदेश जाएगा।

 
भ्रष्टाचार के कई कारण
न्याय प्रक्रिया भ्रष्टाचार से मुक्त रहनी चाहिये एवं समाज को लगना भी चाहिये कि निष्पक्ष न्याय हो रहा है। भ्रष्टाचार विभिन्न कारणों से हो सकता है। आर्थिक भ्रष्टाचार, सामाजिक भ्रष्टाचार, वैयक्तिक भ्रष्टाचार, नैतिक भ्रष्टाचार, अक्षमता जनित भ्रष्टाचार,  व्यावहारिक भ्रष्टाचार, चरित्रगत भ्रष्टाचार, संकीर्ण विचार जनित भ्रष्टाचार, दुर्भावनापूर्ण, निरंकुश एवं विवेकहीन अमानवीय भ्रष्टाचार आदि आदि। इन पर अंकुश तभी लग सकता है जबकि कठोर कानून हों और उनका सख्ती से पालन किया जाए।


  

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