राज्य की न्यायपालिका में कुछ ऐसे मामले हैं जिन्हें बयां करें तो होश उड़ जाए। राजस्थान के परमाणु संयंत्र में कार्य करने वाले एक वैज्ञानिक को 22 जुलाई 1975 को बर्खास्त कर दिया गया। उन्होंने 30 वर्ष की कानूनी लड़ाई लड़ी मगर मिला बकाये का महज एक हिस्सा। वैज्ञानिक पर आरोप लगा कि खुदकशी की नीयत से उन्होंने हैवी वाटर पी लिया। वैज्ञानिक के अनुसार ब्वायलर के पाइप में रिसाव से उनके मुंह में पानी घुस गया। उक्त मामला राजस्थान एवं दिल्ली के केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण से पटना न्यायाधिकरण होते हुये हाईकोर्ट तक आया।वैज्ञानिक की बातों को समझने में कोर्ट को 30 वर्ष लग गये। उनके मामले को कोर्ट में रखने वाले पहले वकील मार्च 1999 में हाईकोर्ट के जज बन गये। तब उनसे फाइल लेकर दूसरे को दिया गया। वे भी फरवरी 2004 में जज बन गये। तब वे तीसरे वकील के पास गये। उनके भाग्य ने यहां भी साथ नहीं दिया और तीसरे वकील केन्द्रीय मंत्री बन गये। पटना हाईकोर्ट की खंडपीठ को मानना पड़ा कि वैज्ञानिक के साथ नाइंसाफी हुई। यहां से शुरू होती है वैज्ञानिक साहब दयाल श्रीवास्तव की व्यथा। श्रीवास्तव के वकील रहे आरके शुक्ला ने बताया कि 22 जुलाई 1975 को युवा वैज्ञानिक को यह कहकर बर्खास्त कर दिया कि उन्होंने हैवी वाटर पीकर मौत को गले लगाने की कोशिश की और सही बातों को छिपाया। दरअसल श्रीवास्तव कई चैम्बर से गुजरकर मशीन में जाते थे। इसके लिए उन्हें अपने कपड़े तक खोलने पड़ते थे। यह बेहद जोखिम भरा कार्य था। वैज्ञानिक श्रीवास्तव ने वरीय पदाधिकारियों से पहले ही शिकायत की थी कि ब्वायलर से रिसाव हो रहा है और किसी भी दिन बड़ी दुर्घटना हो सकती है। इस पर केन्द्र सरकार ने उन्हें हटा दिया। शुरू में उन्होंने अपनी बर्खास्तगी को राजस्थान के न्यायाधिकरण में चुनौती दी। उन्होंने अदालत से शिकायत की कि बर्खास्तगी के बाद वेतन तो बंद कर ही दिया,मकान भी छीन लिया गया है। लिहाजा बेहतर होता उनके मुकदमे को पटना स्थानांतरित कर दिया जाता। पर अदालत ने उनकी बातों को अनसुना कर दिया। तब श्रीवास्तव ने मुकदमा स्थानांतरित कराने के लिए ऊपरी अदालत का सहारा लिया। तब जाकर मामले को पटना कैट भेजा गया। कैट ने 13 जनवरी 2005 को श्रीवास्तव की बर्खास्तगी को अनुचित करार दिया। कैट के फैसले को केन्द्र सरकार ने हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने 13 मार्च 2006 को कैट के फैसले को वाजिब करार देते हुए याचिकाकर्ता को वेतन का 60 प्रतिशत भुगतान करने के साथ 10 हजार रुपये बतौर केस का खर्च देने का निर्देश दिया। हाईकोर्ट के आदेश के बाद भी बकाये का भुगतान नहीं करने पर अवमानना याचिका दायर की गयी। तब उन्हें बकाया मिला। अब श्रीवास्तव ने दूसरी याचिका दायर कर कहा है कि अभी भी उनका 26 लाख रुपया बकाया है। इस सिलसिले में अधिवक्ता एमपी दीक्षित ने कैट में याचिका दायर की है। यह याचिका पिछले 25 जुलाई दायर की गयी। हालांकि श्रीवास्तव 2003 में मुकदमा लड़ते-लड़ते सेवानिवृत्त हो चुके हैं। फिलहाल वे दो मुकदमे लड़ रहे हैं। पहला वेतन नहीं मिलने का और दूसरा पदोन्नति का लाभ नहीं देने का। देखना है कि तीन दशक पुरानी उनकी लड़ाई समाप्त होती है या उन्हें जीवन पर्यन्त मुकदमा लड़ते रहना होगा।
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