बड़ी तादाद में लंबित मुकदमों के पहाड़ तले, पटना उच्च न्यायालय में भी वादकारी का हित और न्याय का मकसद दोनों ही अंधेर कोनों के हवाले होता जा रहा है। उच्च न्यायालय में बीते साल तक लंबित मुकदमों की कुल संख्या तकरीबन 13 लाख थी जिसमें सिविल मामले 80 हजार और आपराधिक मामले 12 लाख से ज्यादा थे जो कभी पीठ न बैठ पाने से लेकर दूसरी कई जटिल प्रक्रियाओं व अड़ंगों से मुवक्किल की सांस अटकी यात्रा में, साल-दर-साल बस तारीखों में घिसटते रहे हैं। मुकदमों के निस्तारण की यह कछुआ चाल न्याय की मनाही (डिनायल) होती जा रही है। कुछ लंबित मुकदमों में तो फैसला आने में 42 साल लग गये। एक फर्स्ट अपील(संख्या- 562/1968) उच्च न्यायालय ने बीते 26 जून को निष्पादित की है। मुकदमा करने वाला और जिसपर किया गया, दोनों ही इस दुनिया में नहीं हैं। अधिवक्ता पूर्णेन्दू सिंह ने बताया कि बंटवारे का यह मुकदमा पहले छपरा जिला न्यायालय में प्रदूमण नारायण सिंह ने किया। बाद में इसे प्रतिवादी गणेश सिंह ने हाईकोर्ट में चुनौती दी। यह इकलौता उदाहरण नहीं है। जमीन जायदाद से संबंधित फर्स्ट अपील (संख्या-262/1961)सहदेव तिवारी बनाम कपिल मुनि और अपील (संख्या-426/1965) चिन्तामणि बनाम राज्य सरकार जैसे दर्जनों मुकदमे हैं, जिनका कोई पक्ष आज फैसला जानने को नहीं बचा है। गौरतलब है उच्च न्यायालय का हालिया निर्णय, जिसमें कहा गया है कि मुकदमे की भीड़ बढ़ाने में राज्य सरकार सबसे आगे है। हाईकोर्ट में पदोन्नति, पेंशन, सेवानिवृत्ति, वेतन, तबादले जैसे सर्विस मैटर को लेकर सरकारी कर्मचारियों के मुकदमों की भरमार हो जाती है। इसमें इतनी ही प्रार्थना होती है कि उन्हें सेवानिवृत
लाभांश नहीं दिया जा रहा है, कोर्ट उनके वाजिब बकाये का भुगतान करा दे। लंबी प्रतीक्षा के बाद जब उनके पक्ष में निर्णय होता है तब संबंधित अधिकारी उसे ठंडे बस्ते में डाल देता है। कोर्ट द्वारा निर्धारित समय में आदेश का पालन नहीं किये जाने पर पीडि़त पक्ष अवमानना याचिका करता है। लंबे अंतराल बाद अदालत संबंधित अधिकारी से कारण बताओ नोटिस जारी कर जवाब-सवाल करती है। तब अधिकारी याचिकाकर्ता के आवेदन पर उल्टा सीधा आदेश पारित कर देता है। अधिकारी से क्षुब्ध होकर वह व्यक्ति फिर न्यायालय का चक्कर लगाता है और इस प्रकार वह मुकदमे के कुचक्र से उबर नहीं पाता। ऐसे मामलों में स्वास्थ्य कर्मियों का मुकदमा बतौर बानगी है। इसी श्रेणी में नवअंगीभूत कालेज शिक्षकों का मामला आता है। ऐसा ही है बिहार शिक्षा सेवा से जुड़ा जनार्दन रायका मामला। करीब दस वर्षो से यह मामला कई अदालतों का चक्कर लगा रहा है। अब यह मुकदमा सुप्रीम कोर्ट जा चुका है। कौन सुने फरियाद : मुकदमों की लंबी फेहरिस्त को आखिर कौन सुनेगा। सिविल कोर्ट में जहां 1367 न्यायिक अधिकारियों के स्वीकृत पद हैं वहां 1063 अधिकारी कार्यरत हैं। पटना हाईकोर्ट में 43 जजों के स्वीकृत पद हैं और यहां अभी 29 न्यायाधीश ही कार्यरत हैं। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां कभी भी 43 जज कार्यरत नहीं रहे। पटना हाईकोर्ट में प्रति वर्ष 9000 सिविल एवं 13000 आपराधिक मामले फाईल होते हैं। इनमें से 7000 सिविल एवं 12000 आपराधिक मामलों का निपटारा हो पाता है। सिविल कोर्ट में हर वर्ष 13000 हजार सिविल केस दाखिल होते हैं और इनमें 12000 का निपटारा हो पाता है। जबकि प्रतिवर्ष 70000 आपराधिक मामले दायर होते हैं और 60000 का निष्पादन हो पाता है। राजनीति कारणों से नहीं हो रही नियुक्तियां : एक लोकहित याचिका की सुनवाई में यह बात उभर कर आयी कि हाईकोर्ट एवं राज्य सरकार की तनातनी में न्यायिक सेवा की नियुक्तियां नहीं हा पो रही हैं। प्रोटेक्शन आफ पब्लिक राइट्स एण्ड वेलफेयर की याचिका में पता चला कि 27 वीं न्यायिक सेवा में 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण लागू करने के कारण कोर्ट एवं राज्य सरकार की नहीं बन रही है। लंबित मामलों के लिए कोई एक कारण नहीं है।
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