मूंछ की लड़ाई से भी मुकदमों का बोझ
निर्भय सिंह, पटना
08/02/10 | Comments [0]
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त्वरित न्याय, लंबित मुकदमे और इंसाफ में देरी की बात जब आप करते हैं तो आपको इस पर विचार करने के पहले यह भी विचार करना चाहिए कि इसके कारक कौन-कौन से हैं? दरअसल नियमित अदालतों का बोझ कम करने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था का भी प्रावधान था, किन्तु कानूनी दांवपेंच के कारण सुलभ न्याय की परिकल्पना दिवास्वप्न साबित हुई। त्वरित न्याय की सोच मूर्त रूप न ले सकी और यह नारा बेमानी हो गया। आज के हालातं की तुलना हम एक ऐसी नाव से कर सकते हैं जिसमें पानी भर गया हो। ऐसे में हमें पहले यह सोचना होगा कि छिद्र कैसे बंद हो, उसके बाद पानी निकालने का काम हो। इस पर विचार करना चाहिए। बिहार में मुकदमों की संख्या कैसे बढ़ी, अगर इस पर हम विचार करते हैं तो इसमें मूंछ की लड़ाई बहुत बड़ी कारक है। बड़ी संख्या में ऐसे लोग ग्रामीण अंचल में मिलेंगे जो पीढ़ी दर पीढ़ी मूंछ की लड़ाई के रूप में मुकदमेबाजी कर रहे हैं और अदालत के चक्कर लगाते-लगाते अपना सब कुछ बर्बाद कर रहे हैं। यही नहीं अच्छी नीतियों को लेकर स्थापित ट्रिब्यूनल, उपभोक्ता फोरम, ग्राम कचहरी और मध्यस्थता कानून भी कारगर ढंग से स्थापित नहीं हो पाया। 1986 में उपभोक्ता फोरम पर कानून बना जिसमें यहां मामले के निष्पादन के लिए अधिकतम समय 3 माह निर्धारित किया गया। इसके लिए राज्य सरकार अदालतों को जरूरी आधारभूत सुविधा नहीं दी जा सकी। न्यायिक पदाधिकारियों की नियुक्तियों में होने लगी राजनीति, इसलिए यह कानून हवा-हवाई ही साबित हो रहा है। लंबित मुकदमों को कम करने की दिशा में केवल रिक्त पदों पर जजों एवं न्यायिक पदाधिकारियों को नियुक्त करने भर से काम नहीं होने वाला है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पटना उच्च न्यायालय में रिक्त 14 पदों, जिला अदालतों के लिए 304 पदों को भरना होगा। वैकल्पिक न्याय के मंचों की देश में कमी नहीं है। राज्य सरकार ने स्पीडी ट्रायल को लेकर पहले स्पीड दिखायी, परिणाम स्वरूप सैकड़ों की तादात में मुजरिम कठघरे में लिये गये। स्पीडी ट्रायल का सबसे बड़ा फायदा यह मिलता है कि न्याय सही ढंग से हो पाता है। गलत प्रवृत्ति के लोगों में भय का संदेश जाता है। विदेशों में स्पीडी ट्रायल से अधिकांश मुकदमे निपटाये जाते हैं। वहां घटना हुई कि एक दो माह में परिणाम आ जाता है। इसका यह नतीजा होता है कि अपराधी गलत करने से डरते हैं। यहां हत्या, अपहरण, बलात्कार जैसे संगीन अपराधियों को जल्दी सजा नहीं मिल पाती, जिससे आपराधिक प्रवृति के लोगों के हौसले बुलंद रहते हैं। राज्य सरकार की जवाबदेही : 90 प्रतिशत मुकदमों में राज्य सरकार पार्टी बनती है। राज्य सरकार यह सोचती है कि मुकदमों के बारे में न्यायपालिका ही सोचे। जबकि सैकड़ों मुकदमे राज्य सरकार के आला अधिकारियों के अडि़यल मिजाज के कारण कोर्ट आते हैं। वैसे कर्मचारियों को भी न्यायालय की शरण आना पड़ता है जिसके बकाये में किसी प्रकार का विवाद नहीं रहता है। इस श्रेणी में पेंशन, सेवानिवृत्ति, स्थानांतरण, पदोन्नति जैसे मामले हैं। अधिकारी यदि थोड़ी सी तत्परता दिखायें तो सैकड़ों मामले त्वरित गति से निपटाये जा सकते हैं। मुकदमेबाजों की हो पहचान : अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं, मुकदमा लड़ना मानो जिनका शौक हो। ऐसे लोग अपनी मूंछ की लड़ाई के लिए निचली अदालत से सर्वोच्च न्यायालय तक जाने से नहीं चूकते। हाईकोर्ट में एक ही तरह के दर्जनों मुकदमे हैं जिसे निपटाने के लिए सही तकनीक की जरूरत है। एक ही आर्डर से दर्जनों मुकदमों का निपटारा हो सकता है। लोकहित याचिका में खत्म होता बहुमूल्य समय : हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक लोकहित याचिका दायर करने का तेजी से प्रचलन बढ़ा है। लोकहित याचिका गलत इरादों से भी दाखिल हो रही है। निजी स्वार्थ अथवा मीडिया में आने के लिए नित नयी याचिकाएं दाखिल हो रही हैं। इस दिशा में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने हाईकोर्ट को दिशा निर्देश भी दिया है कि मानदंड में खरा नहीं उतरने वाले याचिका कर्ताओं पर भारी जुर्माना भी लगाने की आवश्यकता है, ताकि वे दोबारा ऐसा न करें। जनजागरण पर देना होगा जोर : आम लोगों में यह जानकारी देने की आवश्यकता है कि मुकदमेबाजी का क्या हश्र होता है। इसके लिए वकील एवं समाज सेवी को सामने आकर सारी बात बतानी होंगी। जनजागरण के संदेश में आम लोगों को कोर्ट के खर्च एवं उसके परिणामों की जानकारी देनी होगी। मुकदमेबाजी से निपटारा दिलाने के लिए सौ उपाय हैं यदि ईमानदारी से इसका पालन हो।


  

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