हमारे देश में विश्व की प्राचीनतम न्याय व्यवस्था है। जब अधिसंख्य देश वन विधि से संचालित होते थे, उस समय भी भारत में सुगठित, निष्पक्ष व स्वतंत्र न्याय व्यवस्था थी। प्राचीन न्याय व्यवस्था का यह स्वरूप रामायण, महाभारत के साथ-साथ मनु, याज्ञवल्य, कात्यायन, बृहस्पति, पाराशर आदि महान विधिवेत्ताओं की संहिताओं व स्मृतियों में आज भी संरक्षित है। यहां न्याय का मूल स्रोत सम्राट था, पर वह भी विधि के अधीन था। महाभारत के शांतिपर्व में लिखा है कि जो राजा अपनी प्रजा की रक्षा करने में विफल रहे, उसका वध पागल कुत्ते की तरह कर देना चाहिए। इसके साथ ही देश में स्वतंत्र व विधि द्वारा नियंत्रित न्यायपालिका थी। ''प्रादविविका', यह मुख्य न्यायाधिपति का न्यायालय हुआ करता था। हर उच्चतर न्यायालय को अपनी अधीनस्थ न्यायालय के निर्णयों पर पुनर्विचार का अधिकार था। विवाद नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के आधार पर निपटाए जाते थे। प्रक्रिया व साक्ष्य के सिद्धांत भी पूर्ण विकसित थे। व्यवहार वादों के चार चरण थे, वाद, प्रतिवाद, श्रवण व निर्णय। कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' में भारतीय न्यायशास्त्र का विस्तृत वर्णन किया है। राज्य प्रशासनिक दृष्टि से जनपदों में विभक्त था। जनपद में कई द्रोणमुख व हर द्रोणमुख में कई खार बाटिका होती थीं। सबसे छोटी इकाई संग्रहण के नाम से जानी जाती थी। यह दस ग्रामों को इकट्ठा कर बनती थी। हर संग्रहण में एक न्यायालय होता था। जनपद में बड़ा न्यायालय था जो संधिषु के नाम से जाना जाता था। इसमें तीन विधि शास्त्री धर्मस्थ के पद पर नियुक्त होते थे। ये अमात्य क्षेत्रज्ञ न्यायाधीश के रूप में क्षेत्र में दौरा कर वाद निर्णीत करते थे। देश में पारिवारिक न्यायालय भी स्थापित थे। बृहस्पति स्मृति में भी न्यायालयों का विस्तार से वर्णन है। देश की यह न्याय प्रणाली मुस्लिम शासन आने तक चलती रही। मध्य काल में भी इस्लाम के अनुरूप न्याय के लिए उच्चकोटि के आदर्श रखे गए थे। पैगम्बर मुहम्मद ने खुद इन आदर्शो को स्थापित किया था। कुरान में कहा गया है कि न्याय पृथ्वी पर ईश्वर की तुला है। इसमें तौल करने पर रंचमात्र का भी अंतर नहीं होना चाहिए। प्रसिद्ध मुस्लिम विधि शास्त्री फखरुद्दीन मुबारक शाह के अनुसार पैगम्बर का कथन था कि वास्तविक न्याय प्रदत्त करने में व्यतीत किया गया एक क्षण ईश्वर को उतना ही प्रिय है जितना कि साठ वर्ष तक दिन में रोजा रखना व रात में नमाज पढ़ना। मुगल सम्राटों के काल में देश में न्याय व्यवस्था ने एक पृथक व स्वतंत्र रूप लिया था। इसमें न्यायिक प्रशासन की इकाई काजी हुआ। इस दौरान भी न्याय काफी हद तक सर्वसुलभ रहा। अकबर से लेकर औरंगजेब तक सभी सम्राटों ने न्यायप्रियता से प्रसिद्धि अर्जित की। जहांगीरी इंसाफ तो आज भी आदर्श माना जाता है। अंग्रेजों ने इन सारी व्यवस्थाओं को दरकिनार कर अपनी व्यवस्था स्थापित की। अंग्रेजों ने जो व्यवस्थाएं स्थापित कीं, उनका उद्देश्य अपने साम्राज्य को टिकाए रखना तथा अधिकाधिक राजस्व वसूली करना था। अब समस्या यह है कि हमने अंग्रेजों की लादी हुई व्यवस्था को अब तक अपना रखा है। देश में पिछले 60 वर्षो से चल रही यह व्यवस्था 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' साबित नहीं हुई है। इस समय भारतीय न्यायालय हर स्तर पर वादों से पटे हुए हैं। वादकारी वर्षो व दशकों तक अनुतोष पाने से वंचित रहते हैं। हजारों निर्बल, निर्धन व मजबूर नागरिक अन्याय का शिकार हो रहे हैं, पर न्यायालय के दरवाजे खटखटाना अत्यंत व्ययकारी होने के चलते वह न्याय से वंचित रह जाते हैं। इन स्थितियों को देखते हुए वर्तमान व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन की जरूरत है। यहां ऐसी न्याय व्यवस्था होनी चाहिए जो मितव्ययी हो तथा जनसाधारण जिससे अपनी न्यायिक समस्याओं का सहज सुलभ समाधान पा सके। आज जरूरत है बेहतर विकल्प तलाशने की। ऐसी वैकल्पिक प्रणाली अपनाने की जिससे ग्राम व कस्बा स्तर पर अधिकाधिक विवादों का निस्तारण आसानी से हो सके। इसके लिए जरूरत पड़ने पर न्याय व्यवस्था का विकेन्द्रीकरण भी किया जा सकता है।   कार्यपालिका की स्वतंत्रता भी जरूरी न्याय अकेले न्यायपालिका से नहीं चलता वरन न्यायपालिका, विधायिका व कार्यपालिका के संगठन से चलता है। न्याय के लिए जरूरी है कि विधायन सही हो, कार्यपालिका इसे सही ढंग से अंजाम दे व न्यायपालिका निर्भीक, नि:स्वार्थ, राग द्वेष से परे होकर न्याय दे, तभी देश में सुव्यवस्था स्थापित हो सकती है। एक भी पक्ष गड़बड़ होगा तो देश ठीक से नहीं चलेगा। आज स्थिति एकदम विपरीत है। कार्यपालिका व विधायिका के बीच दुरभिसंधि है। कार्यपालिका जब तक विधायिका से मुक्त होकर निष्पक्ष तरीके से काम नहीं करेगी, तब तक मुक्त विधायन में समस्याएं रहेंगी।
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