नई दिल्ली। -खास मामलों के झगड़े निबटाने के लिए बने ट्रिब्युनल खुद लंबित मामलों के बोझ से दब गए हैं। फैसला ऊंची अदालतों से ही होता है। - नोटरी एक्ट 1952 की धारा 7 (एच बी) में नोटरी का काम पक्षकारों के बीच मध्यस्थता करना और सुलह कराना भी है। लेकिन सुलह और मध्यस्थता तो केवल बड़ी कंपनियों तक सीमित है।  - न्याय पंचायतों को तो हिरासत में भेजने का तक अधिकार नहीं मिला इसलिए उनका अस्तित्व ही खत्म हो गया मगर खाप पंचायतें सजा-ए-मौत दे रही हैं। लोक अदालत, मोटर वाहन दुर्घटना ट्रिब्युनल, उपभोक्ता फोरम, परिवार न्यायालय, टैक्स ट्रिब्युनल, प्रशासनिक ट्रिब्युनल और मध्यस्थता कानून ..। कहने को तो वैकल्पिक न्याय के मंचों की देश में कमी नहीं है यानी कि अदालतों पर बोझ कम करने और विवाद निबटाने के इंतजाम ढेर सारे हैं, मगर यह पूरा तंत्र व्यवस्था की खामियों और कानूनी पेचीदगियों में फंस कर न तो न्याय को तीव्र करा सका और न सुलभ। वैकल्पिक न्याय की सबसे पुरानी  सफल व्यवस्था पंचायत थी। सरकार ने न्याय पंचायतों को कुछ कानूनी अधिकार भी दिए मगर इतने नहीं कि न्याय पंचायतें ताकतवर हो सकें।  इसीलिए यह खत्म हो गयीं मगर खाप पंचायतों को पैदा होने से कोई नहीं रोक सका। इन पंचायतों ने अब मौत के फरमान जारी करने शुरू कर दिए। वैकल्पिक न्याय को बढ़ावा देने वाली सरकार गैर कानूनी खाप पंचायतों की नकेल कसने के लिए कानून लाने की तैयारी कर रही है। मध्यस्थता एक पुरानी व्यवस्था है। यह बात अलग है कि पक्षकारों के बीच सुलह कराने के लिए भी अधिकृत नोटरी कुछ और ही काम करते हैं लेकिन सरकार मध्यस्थता को कानूनी आधार दे चुकी है। हालांकि मध्यस्थता का इस्तेमाल काफी सीमित है। छोटी कंपनियां तो इसे अपना ही नहीं पातीं और बड़ी कंपनियां तो  मध्यस्थ नियुक्त होने से लेकर अवार्ड को चुनौती देने तक कई बार अदालत जाती हैं। पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए.एस आनंद ने अगली सदी को मुकदमों के बजाए सुलह, समझौते और मध्यस्थता की सदी होने का ख्वाब देखा था जो अभी अधूरा लगता है।  लोक अदालतों को 1987 के विधिक सेवा प्राधिकरण कानून के तहत  विधायी दर्जा दिया गया। इसके अवार्ड को दीवानी अदालत की डिक्री की मान्यता है और फैसले को किसी भी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती। पिछले साल लोक अदालतों ने 10 लाख से ज्यादा मामले भी निबटाए हैं फिर भी सामान्य अदालतों में वैवाहिक झगड़ों, रिकवरी मामलों और श्रम विवादों के मामले पहुंचते रहते हैं। दरअसल बड़ी अदालतों की साख लोक अदालतों पर भारी पड़ती है। लोक अदालतों के फैसले में कोई कानूनी पेंच तलाश कर हर व्यक्ति अपनी डिक्री पर बड़ी से बड़ी अदालत की मुहर लगवाने के लिए दौड़ता रहता है और मुकदमों का ढेर बढ़ता रहता है। सामान्य अदालतों में मुकदमों का  ढेर घटाने और विशेष मामलों के लिए बने आयकर अपीलीय ट्रिब्युनल (आईटीएटी), केन्द्रीय प्रशासनिक ट्रिब्युनल (कैट), मोटर वाहन दुर्घटना ट्रिब्युनल(एमएसीटी), दूरसंचार विवाद निस्तारण ट्रिब्युनल (टीडीसैट)  सेंट्रल एक्साइस सर्विस कस्टम (सेस्टैट)और परिवार अदालतें गठित हुई हैं लेकिन समस्या हल नहीं हुई। आईटीएटी की  27 शहरों में मौजूद 68 बेंचों में सदस्यों के 37 पद खाली पड़े हैं और  45,314 अपीलें लंबित हैं। विदेशी मुद्रा से जुड़े मामलों के निपटारे के लिए बना ट्रिब्युनल फॉर फॉरेन एक्सचेंज भी पौने दो हजार लंबित मुकदमों से दबा है। वैकल्पिक न्याय की सुविधा देने वाले इन मंचों के फैसलों को ऊंची अदालत में अक्सर चुनौती दी जाती है और इससे यह ट्रिब्युनल तो मुकदमेबाजी के पहले चरण बन जाते हैं। सरकार अब ग्राम अदालत के रूप में लोगों के दरवाजे न्याय लेकर पहुंची है। लेकिन अभी इसकी शुरुआत चार राज्यों में हुई है। मध्य प्रदेश ने 40, महाराष्ट्र ने 9, उड़ीसा ने 1 और राजस्थान ने 45 ग्राम अदालतें स्थापित की हैं। इनके नतीजे आने बाकी हैं।   वैकल्पिक न्याय व्यवस्था पर एक नजर
-लोक अदालत: विधिक सेवा प्राधिकरण कानून 1987 के तहत लोक अदालतों की स्थापना हुई। ये दोनों पक्षों के बीच आपसी समझौतों से झगड़े निपटाती हैं। इनके फैसले पक्षों पर बाध्यकारी होते हैं और उन्हें आगे चुनौती नहीं दी जा सकती। लोक अदालतों द्वारा निपटाए जाने वाले मामले: -वैवाहिक विवाद -कानून में समझौते योग्य आपराधिक मुकदमे -भूमि अधिग्रहण मामले - श्रम संबंधी विवाद -कामगार क्षतिपूर्ति - बैंक रिकवरी केस सरकारी और निजी दोनों बैंकों के मामले शामिल -पेंशन विवाद -हाउसिंग बोर्ड एंड स्लम किलियरेंस केस और हाउसिंग फाइनेंस केस -उपभोक्ता शिकायत मामले -म्युनिसिपल विवाद जिनमें गृहकर विवाद शामिल -बिजली विवाद -टेलीफोन बिल विवाद वैकल्पिक न्याय के अन्य मंच -परिवार अदालतें -ग्राम न्यायालय -मध्यस्थता रो रहे हैं खास मुकदमों के खास इंतजाम: -आईटीएटी: स्टाफ और बुनियादी सुविधाओं की कमी, 45,314 मामले लंबित -ट्रिब्युनल फार फॉरेन एक्सचेंज: करीब पौने दो हजार मामले लंबित
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