नई दिल्ली। -1977: सरकार ने वरिष्ठतम जज एचआर खन्ना की अनदेखी कर सुप्रीम कोर्ट के कनिष्ठ जज एमएच बेग को देश का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया। सरकार के इस कदम से जस्टिस खन्ना ने उसी दिन इस्तीफा दे दिया। 1998: केंद्र सरकार ने हाईकोर्ट के कुछ जजों के ट्रांसफर प्रस्तावों को मुख्य न्यायाधीश एम एम पुंछी को दोबारा विचार करने के लिए वापस भेजा। विवाद बढ़ा और राष्ट्रपति केआर नारायणन ने प्रेसीडेंशियल रेफरेंस भेज कर जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के फैसले पर एक बार फिर मुहर लगा दी। जजों की नियुक्ति पर सरकार और न्यायपालिका के बीच अधिकारों की खींचतान पुरानी भी है और ताजा भी।  शुरुआत के दशक में तो सरकार की ही चली लेकिन बाद में एक मौका मिलते ही सुप्रीम कोर्ट के कॉलीजियम ने व्यवस्था हाथ में ले ली। अलबत्ता पारदर्शिता फिर भी नहीं आई। जजों की नियुक्तियों पर सरकार का नियंत्रण तो विवादित था ही, मौजूदा नियुक्ति प्रक्रिया पर भी अपारदर्शिता के आरोप लगते रहे हैं। सत्रह साल से चल रही मौजूदा व्यवस्था पर सरकार असहज है। उसे जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश की सिफारिशों में खामियां दिख रही हैं। जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की बहस फिर शुरू हो रही है। कानून मंत्री वीरप्पा मोइली भी नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव पर विचार करने की बात करते हैं। जजों की नियुक्ति को लेकर विवाद तो इमरजेंसी के दौरान ही शुरू हो गया था, लेकिन 1977 में वरिष्ठतम जज एचआर खन्ना की अनदेखी वाले मामले से बात कुछ आगे बढ़ गई थी। इमरजेंसी के दौरान व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की हिमायत करने वाले खन्ना का इस्तीफा एक बड़ा विवाद था। जजों की नियुक्तियों में सरकारी दबदबा तब टूटा जब 1993 में जनहित याचिका के जरिए जजों की नियुक्ति का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के सामने आया। सबसे बड़ी अदालत ने तत्काल संविधान की नई व्याख्या कर नियुक्ति के सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए। इस व्यवस्था पर 1998 में विवाद हुआ जब केंद्र ने हाइकोर्ट के जजों के ट्रांसफर की सिफारिश सुप्रीम कोर्ट को वापस भेज दी। विवाद न थमते देख राष्ट्रपति केआर नारायणन ने हस्तक्षेप कर जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के फैसले पर एक बार फिर मुहर लगाई और साथ ही यह व्यवस्था दी कि नियुक्ति की सिफारिश करने से पहले मुख्य न्यायाधीश चार वरिष्ठतम जजों के साथ विचार विमर्श करेगा। इस फैसले में कॉलीजियम व्यवस्था का जन्म हुआ। अब जजों की नियुक्ति का अधिकार पूरी तरह सरकार के हाथ से चला गया था।  अब कॉलीजियम व्यवस्था भी सवालों के घेरे में हैं। देश के 21 उच्च न्यायालयों में सैकड़ों पद खाली हैं। कॉलीजियम के न्यायाधीशों के न्यायिक कार्य के साथ इस काम को करना व्यवहारिक नहीं है। कॉलीजियम के पास ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो उम्मीदवार न्यायाधीश की कार्यकुशलता, निष्ठा और आचरण के बारे में जांच करके तथ्यपरक रिपोर्ट दे सके। इसलिए वरिष्ठता और योग्यता की अनदेखी के आरोप लगते रहे हैं। इसलिए बदलाव की कोशिशें चल रही हैं।
ऐसे की जाती है जजों की नियुक्ति
सुप्रीम कोर्ट के लिए : सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सहित चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों से बने कॉलीजियम किसी जज की नियुक्ति के लिए अनुशंसा करता है। इसके बाद कॉलीजियम की इस सिफारिश को विचार और स्वीकृति के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। नियुक्ति प्रक्रिया में लगने वाला औसत समय : 1 माह हाईकोर्ट के लिए : हाईकोर्ट में जजों की रिक्तियों को भरने के लिए संबंधित हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश कॉलीजियम से सलाह मशविरा के बाद प्रस्ताव को राज्य सरकार के पास भेजते हैं। राज्य सरकार अपनी टिप्पणी के साथ इस प्रस्ताव को केंद्र सरकार के पास भेजती है। फिर देश के मुख्य न्यायाधीश की सलाह लेने के लिए प्रस्ताव को उनके पास भेजा जाता है। बाद में इसे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पास विचारार्थ एवं स्वीकृति हेतु भेजा जाता है। नियुक्ति प्रक्रिया में लगने वाला औसत समय : 6 माह नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की गुहार - 1958 में विधि आयोग की चौदहवीं रिपोर्ट में नियुक्ति प्रक्रिया निर्धारित करने की सिफारिश - 1973 में देश भर के बार एसोसिएशन द्वारा जजों की नियुक्ति का फार्मूला लागू करने की मांग - 1973 में प्रशासनिक सुधार आयोग ने विधि आयोग की 14वीं रिपोर्ट से सहमति जताई - 1987 में विधि आयोग की 121 वीं रिपोर्ट न्यू फोरम फार ज्युडिशियल अपाइंटमेंट में नेशनल ज्युडिशियल सर्विस कमीशन की सिफारिश - नेशनल ज्युडिशियल कमीशन विधेयक लाया गया - 1993 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला,  नियुक्ति में सरकार का दखल समाप्त - 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व फैसले पर मुहर लगाई और कॉलीजियम व्यवस्था लागू कोट : जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव के लिए सुप्रीम कोर्ट को रिफरेंस भेजा जा सकता है और कानून बनाने जैसे विधायी उपायों पर भी विचार हो सकता है-कानून मंत्री वीरप्पा मोइली
|