मी लॉर्ड के लिए भी तो हो कोई कानून?
माला दीक्षित
07/29/10 | Comments [0]
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नई दिल्ली। वी रामास्वामी, सौमित्र सेन और पीडी दिनकरन के बीच सिर्फ इतनी ही समानता नहीं है कि तीनों न्यायमूर्ति हैं। इन तीनों न्यायाधीशों पर न्याय का दामन दागदार करने के आरोप भी लगे। यही नहीं, इनको  पद मुक्त करने के लिए संसद में महाभियोग के प्रस्ताव लाए गए या लाने की शुरुआत की गई। पिछले 60 सालों में कई बार भ्रष्टाचार की काली छाया न्याय की सबसे पवित्र कुर्सी तक पहुंची है लेकिन हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों पर कार्रवाई के कानून का अंधेरा कायम रहा है। गौरतलब है कि उच्च व सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को सिर्फ महाभियोग से ही हटाया जा सकता है। लेकिन इसका इस्तेमाल बहुत पेचीदा है। वरिष्ठ न्यायाधीशों पर कार्रवाई के लिए कानून की अनुपस्थिति ने न्याय की साख को गहरी खरोंचें पहुंचाई हैं।
संविधान निर्माता गलत नहीं थे। अदालतों को सर्वोच्च मानते हुए उन्होंने कर्तव्य से विरत हुए वरिष्ठ न्यायाधीशों को हटाने की ताकत लोकतंत्र की सबसे बड़ी अदालत यानी संसद को दी थी। लेकिन इसके बाद संसद ही चूक गई। हाईकोर्ट व इससे ऊपर के स्तर पर भ्रष्टाचार के कई मामले उठे मगर एक भी न्यायाधीश पर कार्रवाई नहीं हो पाई। अब जब पानी गले तक आ पहुंचा है तो केंद्र सरकार न्यायाधीशों पर कार्रवाई के लिए पुख्ता कानून की जरूरत पर बहस कर रही है।
गाजियाबाद के ताजे नजारत घोटाले  से न्यायपालिका शर्मसार हुई है। भारतीय इतिहास में पहली बार छह जजों के खिलाफ एक साथ अदालत में आरोपपत्र दाखिल हुए। इसमें तीन इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं और तीन गाजियाबाद के सेवानिवृत्त जिला जज। दरअसल न्यायाधीशों के आचरण को लेकर कानून की चुप्पी खासी रहस्यमय है। आरोप भले गंभीर हों, लेकिन हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के स्थाई जज को हटाना तो दूर उसके खिलाफ छुट्टी पर भेजने या कामकाज छीनने जैसी अनुशासनात्मक कार्रवाई भी मुश्किल है। आरोपित जज सलाह मानने को बाध्य नहीं हैं।
कर्नाटक के मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनकरन इसके ताजा उदाहरण हैं। सुप्रीम कोर्ट कोलीजियम ने इन पर लगे आरोपों की जांच पूरी होने तक इन्हें लंबी छुट्टी पर जाने की सलाह दी थी मगर सलाह नहीं मानी गई। मजबूरन कोलीजियम को यह सिफारिश करनी पड़ी कि दिनकरन को सिक्किम हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया जाए। यह आदेश भी लंबित है। जस्टिस दिनकरन न्यायिक कामकाज से दूर हैं मगर मुख्य न्यायाधीश का सारा प्रशासनिक कामकाज देख रहे हैं। हाईकोर्ट के अन्य जज उनके निर्देशों को मानने से इंकार नहीं कर सकते क्योंकि ऐसा करना पेशेवर आचरण के खिलाफ होगा। संसद में महाभियोग साबित होने और राष्ट्रपति के आदेश से पद मुक्त होने तक जस्टिस दिनकरन अपने पद पर इसी तरह कामकाज कर सकते हैं।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ जांच करने या मामला दर्ज करने से पहले जांच एजेंसी को भारत के मुख्य न्यायाधीश से अनुमति लेनी जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के वीरास्वामी के मामले में यह व्यवस्था दी थी। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि देश के मुख्य न्यायाधीश के पास कार्रवाई के लिए असीमित अधिकार हैं। गलत आचरण का दोषी पाए जाने पर सुप्रीम कोर्ट की जांच कमेटी ने जस्टिस सौमित्र सेन से इस्तीफा देने को कहा था। लेकिन जस्टिस सेन ने इस्तीफा देने से मना कर दिया था। अंतत: तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने सरकार से महाभियोग लाने की सिफारिश की थी।
अलबत्ता महाभियोग की कोशिशें कभी सफल नहीं हुई। न्यायमूर्ति वी रामास्वामी के खिलाफ तो लोकसभा अध्यक्ष द्वारा गठित समिति की जांच के बाद 1991 में संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया। लेकिन राजनीति भारी पड़ी और यह प्रस्ताव गिर गया। आज तक सिर्फ एक न्यायाधीश को हटाया गया है मगर वह भी संविधान लागू होने से पहले। 1949 में गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी ने फेडरल कोर्ट की रिपोर्ट पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शिव प्रसाद सिन्हा को हटाया था।
इतनी घटनाओं के बाद सरकार भी जजों की जवाबदेही तय करने के लिए ''ज्यूडिशियल स्टैंड‌र्ड्स एंड एकाउंटबिलिटी बिल' लाने की तैयारी में है जिसमें महाभियोग के अलावा छोटे मोटी अनुशासनात्मक कार्रवाई की व्यवस्था किए जाने की बात चल रही है।


  

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