न्यायिक सुधार के लिए खुद को बदलें
लखनऊ, जागरण ब्यूरो
08/08/10 | Comments [0]
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दिनोंदिन बढ़ते मुकदमों के बोझ से कराहती भारतीय न्यायिक व्यवस्था टकटकी लगाये सुधारों की संजीवनी की बाट जोह रही है। नागरिकों को सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय मुहैया कराने की जिद्दोजहद के बीच मुकदमों का चरित्र परिवर्तित हुआ है, उनकी नवैयत बदली है। मुकदमों का अम्बार बढ़ाने के लिए सिर्फ वे जरूरतमंद और मजलूम ही जिम्मेदार नहीं हैं जो अपने अस्तित्व पर आये संकट से निपटने के लिए अदालत की कुंडी खटखटाते हैं। न्यायपालिका की पीठ पर मुकदमों का बोझ बढ़ाने में उन संसाधन सम्पन्न रसूखदारों की भी कम भूमिका नहीं है जो स्वार्थसिद्धि के लिए अदालत के दरवाजे पर प्रभावी दस्तक देने लगे हैं। बेहतर और त्वरित न्याय सुलभ कराने के लिए न्यायपालिका को बेशक अधिक मानव और भौतिक संसाधनों की जरूरत है लेकिन यांत्रिक सुधारों की घुट्टी से कहीं ज्यादा उसे नैतिकता की खुराक की दरकार है। न्यायिक व्यवस्था से जुड़े सभी पक्षकार यदि खुद को सुधारने लगें तो उससे ही न्यायिक सुधार रूपी कस्तूरी की तलाश काफी हद तक पूरी की जा सकेगी। दैनिक जागरण द्वारा शनिवार को लखनऊ सिविल कोर्ट स्थित सेंट्रल बार एसोसिएशन के डा.राजेन्द्र प्रसाद मेमोरियल हॉल में न्यायिक सुधार पर आयोजित विमर्श में यह निष्कर्ष निकले। अपने संबोधन में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायमूर्ति प्रदीप कांत ने कहा कि यदि विधायिका और कार्यपालिका अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाएं तो न्यायपालिका पर मुकदमों का अनावश्यक बोझ न बढ़े लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं रहा है। व्यवस्था के सताये लोगों के लिए हम अदालतों के दरवाजे सिर्फ इसलिए नहीं बन्द कर सकते कि वे लम्बित मुकदमों की संख्या बढ़ाएंगे। न्यायपालिका में आम आदमी की आस्था बरकरार है और हमें इस धारणा को बलवती बनाये रखने के उपाय सोचने चाहिए। त्वरित न्याय के लिए अदालतों को और संसाधन सम्पन्न बनाने की वकालत करने के साथ ही उन्होंने वकीलों को स्थगनादेश लेने की प्रवृत्ति के लिए चेताया भी। यह भी कहा कि इससे आप और हम, दोनों बदनाम हो रहे हैं। उन्होंने वकीलों को अपने मुवक्किलों को पढ़ाने-लड़ाने की बजाय उनसे ईमानदार होने की नसीहत भी दी। न्याय के महंगे होने पर उन्होंने अधिवक्ताओं से कहा कि आप अपनी काबिलियत की बेशक मुंहमांगी फीस वसूल सकते हैं लेकिन यह ध्यान रखिये कि इससे न्याय का रास्ता भी अवरुद्ध होता है। उन्होंने विधायिका को सलाह दी कि वह कानून बनाते समय उसके औचित्य और उद्देश्य पर भरपूर बहस करे। कानून इतना परिपक्व और पूर्ण बने कि उसे अदालतों में आसानी से चुनौती न दी जा सके। लोकायुक्त न्यायमूर्ति एनके मेहरोत्रा ने इस बात पर चिन्ता जतायी कि जिन मुकदमों का निस्तारण होना चाहिए,
उनका निस्तारण हो नहीं पाता। केवल ऐसे मुकदमे निस्तारित होते हैं जिनसे देश की राजनीति और सामाजिक समस्याएं प्रभावित होती हैं। त्वरित न्याय के लिए उन्होंने न्यायपालिका के सभी खाली पदों पर तत्काल नियुक्तियां करने, अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों के लिए एक नया आयोग बनाने और उच्च न्यायालयों में हर मामला एकल बेंच के सिपुर्द किये जाने के सुझाव दिये। लम्बित मुकदमों के निपटारे के लिए उन्होंने उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की सेवा लेने और दीवानी अदालतों में फास्ट ट्रैक कोर्ट की संख्या बढ़ाने की भी सलाह दी। उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति राकेश शर्मा ने मुकदमों की बदलती नवैयत का उल्लेख करने के साथ ही अदालतों में संसाधनों की कमी और जजों की जवाबदेही जैसे मुद्दों पर रौशनी डाली। उन्होंने कहा कि जज, वकील और उभय पक्ष यदि सहमत हों तो कई अधिनियमों के तहत दर्ज होने वाले मुकदमे शुरुआती स्तर पर ही निपटाये जा सकते हैं। अपने भावपूर्ण सम्बोधन में उच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति कमलेश्वर नाथ ने उप्र में अधीनस्थ न्यायालयों के जजों के खिलाफ शिकायतों की जांच करने के लिए ज्यूडिशियल ओम्बुड्समैन (न्यायिक लोकपाल) नियुक्त करने की सिफारिश की। इस बात पर निराशा भी व्यक्त की कि उनके इस सुझाव को सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्ट ने अनसुना कर दिया। यह भी कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता का आशय यह नहीं कि जजों को जो चाहे करने का लाइसेंस दे दिया जाए। न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए उन्होंने मनोवृत्ति में बदलाव की जरूरत बतायी। उन्होंने कहा कि मुकदमे न्याय पाने के लिए नहीं बल्कि किसी भी कीमत पर मकसद हासिल करने के लिए लड़े जा रहे हैं। विवादों को अदालत तक घसीटने की बजाय उन्होंने उन्हें आपसी सुलह-समझौते के आधार पर सुलझाने की सलाह दी। वकीलों को नाहक हड़ताल व कार्यबहिष्कार से बचने की भी सलाह दी। गुजरात की तर्ज पर दो पालियों में अदालत चलाने की सिफारिश भी की। राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बलराज चौहान ने न्यायिक सुधारों की अपरिहार्यता तो जतायी लेकिन यह भी कहा कि सुधार उन्हीं के पास आते हैं जो सुधरना चाहते हैं। न्याय समाज की जरूरत के लिए बना है। विधि का शिक्षक होने के नाते उन्होंने न्यायिक व्यवस्था में आस्थावान, अच्छे मूल्यों वाले अधिवक्ता तैयार करने का संकल्प दोहराया। यह भी कहा कि न्यायिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार को हमनें जो संस्थागत दर्जा दिलाया है, उससे मुक्ति के लिए भी हमें ही आत्ममंथन करना होगा। वरिष्ठ पत्रकार व राज्य सूचना आयुक्त ज्ञानेंद्र शर्मा ने निर्बल व सबल को सिर्फ और सिर्फ कानून की कसौटी पर परखने की हिमायत की। यह कहते हुए कि विवेकाधीन निर्णय करने का अधिकार भ्रष्टाचार की जड़ है। उन्होंने इस बात पर चिन्ता जतायी कि मौजूदा न्यायिक व्यवस्था में दोनों पक्षों को नोटिस भेजने तक की पक्की व्यवस्था विकसित नहीं हो पायी है। अदालत की नोटिस तामील कराने के लिए उन्होंने हर जिले में एक अधिकारी नामित करने की सलाह दी। न्यायिक व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए स्थागनादेशों की मियाद एक निश्चित समयावधि तक सीमित रखने, मुकदमे की सुनवाई के दौरान एक बार से अधिक स्थगन न देने, सूचना का अधिकार कानून में संशोधन करने और अदालतों को इंटरनेट से जोड़ने की सिफारिश की। वहीं लखनऊ के जिला जज शिवानंद मिश्रा ने कहा कि न्यायिक व्यवस्था से जुड़े पक्षकारों के लिए यह आत्मावलोकन का क्षण है। लखनऊ के जिला जज शिवानंद मिश्र ने कहा कि न्यायिक व्यवस्था से जुड़े पक्षकारों के लिए यह आत्मावलोकन का क्षण है। तकनीकी सत्र को सम्बोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार व पूर्व सांसद राजनाथ सिंह सूर्य ने इस बात पर चिंता जतायी कि मौजूदा न्यायिक व्यवस्था में वादकारी को निर्णय मिलने की गारंटी होती है, इंसाफ मिलने की नहीं। अधिवक्ता सच की लड़ाई लड़ने की बजाय मुवक्किलों को तिकड़म सिखाने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। उन्हें प्रलोभनों से बचना होगा। गौतम बुद्ध के शाश्वत संदेश अप्पो दीपो भव को उद्धृत करते हुए उन्होंने न्यायिक व्यवस्था से जुड़े सभी पक्षकारों को अपने अंतस में झांकने की सलाह दी क्योंकि सच सिर्फ वहीं दिखायी देता है। उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता आईबी सिंह ने न्याय मिलने में देर पर सिर्फ जजों को घेरे जाने के औचित्य पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि इसके लिए वादकारी भी दोषी हैं और अपनी अकर्मण्यता से अदालतों पर मुकदमों का बोझ डालने वाली सरकार भी। उन्होंने वादकारियों और वकीलों के हितों की बजाय व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति में लगी बार एसोसिएशनों पर भी तंज किया। बेहतर न्यायिक प्रणाली के लिए बार और बेंच की रस्साकशी को विराम लगाने का भी सुझाव दिया। विमर्श को सम्बोधित करते हुए सेंट्रल बार एसोसिएशन के अध्यक्ष राजकुमार यादव व महासचिव उमाशंकर श्रीवास्तव, लखनऊ बार एसोसिएशन के अध्यक्ष चंद्रप्रकाश त्रिपाठी और अवध बार एसोसिएशन के अध्यक्ष शिवाकांत तिवारी ने वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में अधिवक्ताओं के हितों की अनदेखी और अदालतों में संसाधनों की कमी की ओर ध्यान आकृष्ट कराया। कार्यक्रम में महाधिवक्ता ज्योतींद्र मिश्र व मुख्य स्थायी अधिवक्ता देवेंद्र कुमार उपाध्याय भी मौजूद थे।


  

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