वसीयत ने रुलाया, दो दशक गंवाए
केपी सिंह, गुरदासपुर
08/08/10 | Comments [0]
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वसीयत जैसा साधारण मामला और 21 साल से न्याय की लड़ाई। अंतिम फैसले का अभी इंतजार है। जिला कचहरी से होते हुए केस हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक का सफर तय कर गया। गौर करें तो गुरदासपुर के मोहल्ला रूलिया राम कालोनी की निवासी अविवाहित राज मोहनी ने अपना कोई निकटतम वारिस न होने के कारण 2 अप्रैल 1985 को अपनी वसीयत रेडक्रास सोसाइटी गुरदासपुर के नाम पर तैयार की। इसे बंद लिफाफे में डालकर डीसी कार्यालय में जमा करवा दिया। डीसी से अनुरोध किया कि उसकी मृत्यु के बाद इसे रेडक्रास को ही सौंपा जाए। इसी बीच राज मोहनी का मन बदल गया और उसने अपनी पहली वसीयत को खारिज करते हुए 12 जून 1987 को एक नई वसीयत अपने ममेरे भाई जोगेंद्रपाल पुत्र पन्ना लाल दीवान वासी गांधीधाम (गुजरात) के नाम तैयार की। राज मोहनी ने 5 फरवरी 1988 को तत्कालीन डीसी डीएस कल्हा को दरखास्त देकर साफ कर दिया कि उसकी पहली वसीयत को रद समझा जाए। 28 अप्रैल 1988 को राज मोहनी का निधन हो गया। उसके मरने के बाद रेडक्रास सोसायटी ने पहली वसीयत को आधार मानकर राज मोहनी की संपत्ति हासिल करने के लिए गुरदासपुर की निचली अदालत में केस दायर कर दिया। इस केस को उसके ममेरे भाई जोगेंद्रपाल ने चुनौती दी। अदालत के सामने यह सवाल खड़ा हुआ कि आखिर राज मोहनी की दोनों वसीयतों में से कौन सी वसीयत को सही माना जाए। सभी पहलुओं पर गौर करने के बाद 30 मार्च 1993 को सब जज गुरदासपुर ने फैसला जोगेंद्रपाल के हक में सुनाया। इसके बाद रेडक्रास ने जिला अदालत में अपील की। 30 अगस्त 1996 को यह अपील अदालत ने खारिज कर दी। उसके बाद रेडक्रास ने हाईकोर्ट में अपील की जिस पर 10 अक्टूबर 1996 को फिर से जोगेंद्रपाल के हक में फैसला हुआ। इस तरह जोगेंद्रपाल के हक में राज मोहनी की संपत्ति का रेवेन्यू विभाग में इंतकाल भी दर्ज हो गया। मामला यहीं खत्म नहीं हुआ। रेडक्रास सोसायटी ने इस इंतकाल को कमिश्नर जालंधर की अदालत में चुनौती दे दी। यहां से भी उसकी अपील 30 जून 2000 को खारिज हो गई। फिर रेडक्रास ने वित्त कमिश्नर चंडीगढ़ की अदालत में इस फैसले को चुनौती दी, लेकिन वहां से भी वर्ष 2002 में उसकी अपील खारिज हो गई। फिर हाईकोर्ट की खंड पीठ के समक्ष अपील की गई, लेकिन 10 अगस्त 2002 को यहां से भी खारिज हो गई। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील की वहां से 20 दिसंबर 2002 को अपील खारिज हो गई और यह फैसला हुआ कि जोगेंद्रपाल के नाम हुआ इंतकाल बिल्कुल सही है। मामला फिर भी खत्म नहीं हुआ है। अभी भी मामला हाईकोर्ट में लंबित है। हालांकि, जोगेंद्रपाल को वर्ष 2000 में इस संपत्ति (करीब दस कनाल जमीन और 7 लाख नकदी) में कानूनी रूप से कब्जा मिल चुका है। पर, कोर्ट कचहरी का चक्कर दो दशक बाद भी जारी है। जोगेन्द्र पाल के वकील आरपी महाजन का कहना है कि बेशक उन्हें संपत्ति का कब्जा मिल चुका है। लेकिन जोगेन्द्र पाल को इसकी इतनी ज्यादा खुशी नहीं हुई, क्योंकि अपना हक पाने के लिए उसने दो दशक तक बहुत कुछ गंवा दिया। अभी पता नहीं उसे और कितने साल बाद पूरी तरह इससे राहत मिलेगी।


  

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