छोटी अदालतें, बड़ी मनमानी
विधि संवाददाता, इलाहाबाद
08/06/10 | Comments [0]
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सोरांव तहसील में दो परिवारों में कई सालों से मुकदमे चल रहे हैं। कारण, तीन लाठा भूमि का झगड़ा है, जिसका फैसला तहसील स्तर से अब तक नहीं हुआ। -मेजा के एक गांव में पारिवारिक रंजिश कई बार मारपीट का कारण बनी। थोड़ी सी भूमि के विवाद ने बड़ा रूप ले लिया। भूमि का विवाद अभी तक नहीं सुलझा है। हाईकोर्ट के एक अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति कहते हैं-यदि राजस्व अदालतें फैसले समय से लें, अपराध अपने आप ही कम हो जाएंगे। कमोबेश यह कथन सही भी ही है। राजस्व मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। खेत-खलिहान और मेंड़ के विवाद सालों साल से तहसील स्तर पर ही पड़े हुए हैं। रंजिश के तो हर अपराध के मूल में ही ऐसे ही विवाद हैं। चंकबंदी के विवादों के निस्तारण में ही सालों साल लग जाते हैं। जाहिर है कि प्रसाशनिक अदालतें अपनी भूमिका में सही नहीं उतर सकीं। यही हाल वैकल्पिक अदालतों का भी है। हुआ यह कि जब भी शासन तंत्र को न्यायालय का हस्तक्षेप अखरने लगा उसने वैकल्पिक अदालतों के गठन कर अपनी मनमानी को ढंकने की कोशिश की। जहां अदालतों पर सीधे हाईकोर्ट का नियंत्रण होता है वहीं प्रशासनिक अदालतों में चकबंदी, राजस्व, व्यापार कर, आयकर, श्रम प्राधिकारी आदि शामिल हैं। पहले राज्य कर्मचारियों के सेवा मामले अदालती चौखट पर जाते थे तो सरकार ने राज्य कर्मचारी सेवा अधिकरण गठित किया। यहां वर्षो अपने लिए न्याय की तलाश के बाद निराश कर्मचारी को न्यायालय की शरण में आना पड़ रहा है। इसके अलावा केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण, ऋण वसूली अधिकरण, टैक्स अधिकरण, आयकर अपीलीय अधिकरण, श्रम न्यायाधिकरण व श्रम न्यायालय, मोटर वाहन दुर्घटना अधिकरण, दूरसंचार विवाद अधिकरण सेना अधिकरण जैसे तमाम न्यायाधिकरण वैकल्पिक न्याय व्यवस्था के तहत खड़े किये गये हैं। इसके अलावा न्यायिक सुधार व त्वरित न्याय के नाम पर परिवार न्यायालय, उपभोक्ता फोरम, विधिक सेवा प्राधिकरण, लोक अदालतें व मीडिएशन सेंटर स्थापित किये गये हैं। विशेष अपराधों के लिए विशेष अदालतों के गठन की व्यवस्था की गयी है। लेकिन यह इतनी प्रभावी नहीं नजर आई, जितनी होनी चाहिए थीं।


  

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