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समय के अनुरूप कानून में हो बदलाव

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का तमगा हासिल करने के बाद भी हमारे देश की न्यायप्रणाली आम आदमी को शीघ्र न्याय देने में सफल नहीं रही है। विश्व के अधिकतर लोकतंत्र प्रधान देशों में न्याय व्यवस्था इस तरह की है कि एक नियत समय में केस का फैसला हो जाता है।
अंग्रेजी न्याय से मुक्ति का समय

हमारे देश में विश्व की प्राचीनतम न्याय व्यवस्था है। जब अधिसंख्य देश वन विधि से संचालित होते थे, उस समय भी भारत में सुगठित, निष्पक्ष व स्वतंत्र न्याय व्यवस्था थी। प्राचीन न्याय व्यवस्था का यह स्वरूप रामायण, महाभारत के साथ-साथ मनु, याज्ञवल्य, कात्यायन, बृहस्पति, पाराशर आदि महान विधिवेत्ताओं की संहिताओं व स्मृतियों में आज भी संरक्षित है।
न्यायपालिका अपनी जवाबदेही तय करे

भारतीय न्यायपालिका को विश्र्व में उच्च स्थान प्राप्त है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हमारी न्याय व्यवस्था में कोई कमी नहीं है। खामियां हैं, कुछ तंत्र की और कुछ व्यक्तिगत। व्यक्तिगत खामियों के कारण पूरा न्यायतंत्र बदनाम होता है। आज हमारी न्यायपालिका की आलोचना विभिन्न क्षेत्रों में हो रही है।
न्याय प्रणाली सिस्टम के अनुरूप नहीं

वर्तमान में देश में न्यायप्रणाली भारतीय सिस्टम के अनुरूप कतई नहीं हैं। देश की दंड संहिता आईपीसी अंग्रेजों के समय से चली आ रही है। जब भी इसके संशोधन की बात आती है तो संसद में हंगामा हो जाता है। मूलरूप से हमारी राजनीतिक प्रणाली ज्यूडिशियल रिफार्म चाहती ही नहीं है और इसका खामियाजा देश की जनता को भुगतान पड़ता है।
न्याय की आस में पीढि़यां न गुजरें

हमारे देश में पुरातन काल में संविधान स्मृतियों के रूप में संहिताबद्ध था। मनु, याज्ञवल्क्य, जैमिनी, बृहस्पति और नारद आदि हमारे पुरातन प्रकांड विधिवेत्ता थे। मनु स्मृति व न्याय सूत्र में न्याय का अर्थ उस प्रणाली, नियम या योजना से था, जिसके द्वारा सम्यक निर्णय तक पहुंचा जा सके। असल में प्रमाणों द्वारा अर्थ का परीक्षण तथा वस्तु तत्व की परीक्षा ही न्याय है, लेकिन 26 जनवरी 1950 को लागू हुए विश्व के सबसे बड़े व विस्तृत भारतीय संविधान में 'न्याय' शब्द की परिभाषा नहीं है।
इन नियम-कायदों में सुधार नितांत जरूरी

देरी से न्याय और अदालतों में पड़े विचाराधीन केसों की संख्या पर लगाम कसने के लिए सुधार की नितांत आवश्यकता है। इसके लिए न्यायपालिका व कार्यपालिका दोनों को आगे आना होगा। ब्रिटिश हुकूमत के समय से चले आ रहे नियम-कानूनों में वर्तमान परिदृश्य के हिसाब से बदलाव लाना होगा।
सार्थक पहल

दैनिक जागरण द्वारा चलाया जा रहा अभियान समय को देखते हुए बहुत ही आवश्यक है तथा लोगों के मन में जागरूकता लाने के लिए एक सशक्त माध्यम है तथा वादकारियों के लिए भी अत्यंत आवश्यक है।
उठने लगी हैं उंगलियां : गर्ग

हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के ग्यारह बार उपाध्यक्ष रहे वरिष्ठ अधिवक्ता एस के गर्ग का कहना है कि आम जनता की तरफ से भी न्यायपालिका पर उंगली उठने लगी है। वह इसके लिये गाजियाबाद के पीएफ घोटाला, पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति पर रिश्वत लेने का मामला तथा मद्रास हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति दिनकरन के मामले को जिम्मेदार मानते हैं।
सस्ते-सुलभ न्याय की राह
न्यायमूर्ति केडी शाही
न्यायपालिका लोकतांत्रिक ढांचे की नींव है। यदि किसी इमारत की नींव ही कमजोर हो तो इमारत लंबी अवधि तक टिक नहीं सकती। भारत का संवैधानिक ढांचा 1951 में तैयार हुआ और फिर संविधान लागू हुआ। इसमें संशोधन भी हो गए, फिर भी देश में लोकतंत्र विशेषकर न्याय प्रणाली की स्थिति बद से बदतर होती गई।
पहले वकील व जज दोनों समय देते थे
राम बालक मिश्र, पूर्व चेयरमैन, उत्तर प्रदेश बार काउंसिल
पहले वकील व जज दोनों समय देते थे अब वह प्रथा खत्म हो गयी है। हर दिन सुनवाई के लिए ज्यादा मुकदमे लगाये जाते हैं। इस वजह से मुकदमों का निस्तारण नहीं हो पाता और अनैतिकता बढ़ती है। तमाम मुकदमे ऐसे भी होते हैं जिनमें केवल एक पक्ष आता है।
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