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जवाबदेही स्वायत्तता का ही पहलू
विधान में सत्ता के दुरुपयोग को रोकने के लिए जांच और संतुलन स्थापित करने के लिए प्रणालियां होनी ही चाहिए। संविधान सभा के अंतिम सत्र में डा. राजेंद्र प्रसाद ने जो सीख दी थी उसे हमें याद रखना है। उन्होंने कहा था, संविधान में कोई व्यवस्था हो या न हो, देश का कल्याण इस बात पर निर्भर करेगा कि उसका संचालन किस प्रकार से किया जा रहा है और उन व्यक्तियों पर निर्भर करता है जो इसका संचालन करते हैं.... संविधान तो एक मशीन की तरह है जो जीवंत नहीं होती। |
मध्यस्थता यानी दोनों पक्षों की जीत राजीव गुप्ता अधिवक्ता, उच्च न्यायालय वर्ष 1850 के आसपास न्याय की अदालती व्यवस्था में जिला स्तर पर दाण्डिक वाद तीन माह में तथा सिविल वाद एक वर्ष में निपट जाया करते थे। कमोवेश यही स्थिति लगभग अगले एक सौ वर्षो तक चलती रही। वर्ष 1960 में न्यायिक अधिकारी हुए मेरे पिताजी बताते हैं कि उस समय तक भी आमतौर पर दाण्डिक वाद छह माह में तथा सिविल वाद लगभग तीन वर्ष में, जिला स्तर के न्यायालयों पर निपट जाया करते थे। |
सवाल कानून और नैतिकता का रणदीप सिंह सुरजेवाला, वरिष्ठ अधिवक्ता एवं जनस्वास्थ्य एवं अभियांत्रिकी मंत्री, हरियाणा कानून और नैतिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संविधान के तीनों भागों में न्यायपालिका के सबसे अधिक सम्मान का भी यही कारण है। पर मुझे यह देखकर दु:ख होता है कि कई मामलों में न्यायपालिका ने नैतिक नेतृत्व क्षमता खो दी है। इस नैतिक श्रेष्ठता में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति को आघात पहुंचा जब भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेकेजी बालाकृष्णन ने |
न्यायिक व्यवस्था में बदलाव की जरूरत केएस राठौर, असिस्टेंट प्रोफेसर, यूनिटी लॉ कालेज जहां तक न्यायपालिका का प्रश्न है लोगों के मौलिक अधिकारों का संरक्षक होने के कारण यदि कभी इस संस्था की विकृतियां. चाहें वे जिस रूप में भी हों, जनता के समक्ष उजागर होती हैं तो आम नागरिक का आश्चर्यचकित होना स्वभाविक है। इसी कारण सरकार व आम जनमानस न्यायिक सुधारों की बात कर रहा है इसके लिए हमें सरकार के बुनियादी व ढांचागत व्यवस्था पर भी दृष्टिपात करना होगा। |
सुलझेगा केस बढ़ेगा निवेश संजीव के कुमार, पार्टनर, खेतान एंड कंपनी पिछले दो दशकों के दौरान वैश्वीकरण, औद्योगिकीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था का चहुंमुखी विकास हुआ। अर्थव्यवस्था, वाणिज्य और कारोबार में हुए इस विकास से वाणिज्यिक लेनदेन के विवादों में भी बढ़ोतरी हुई। देश के न्यायिक अधिकार क्षेत्र के तहत जिस गति से इन विवादों का निपटारा किया जाता है, भावी निवेशकों द्वारा निवेश की मंजिल चुनने के समय प्रतिस्पर्धी न्यायिक अधिकार क्षेत्रों वाला यह कारक कहीं न कहीं उनके मूल्यांकन का आधार बनता है। |
महिला उत्पीड़न संबंधित कानूनों में हो व्यापक संशोधन
कानून में संशोधन काफी संजीदा और गंभीर मामला है। इसकी प्रक्रिया ऐसी बनाई जानी चाहिए कि विभिन्न कानूनों के संदर्भ में आम आदमी की प्रतिक्रिया मिलती रहे, आये फीडबैक के आधार पर इसमें सतत सुधार होना चाहिए। तभी कानून समाज के अनुकूल बना रहेगा और लोगों को वास्तविक न्याय मिल सकेगा। |
सबकी एकाउंटिबिलिटी हो एएन त्रिपाठी भारतीय संदर्भ में वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों आदि ग्रंथों में न्याय के विभिन्न आचार्यो, न्यायाधीशों के गुणों एवं न्याय की आवश्यकता को वर्णित किया गया है। न्यायाधीश को ईमानदार, नीर-क्षीर विवेचक, मानवीय संवेदना एवं आदर्श चरित्र से ओतप्रोत होना चाहिये। कोई भी व्यक्ति यदि न्याय के विपरीत कार्य करता है, वह दंड का भागी होता है। |
न्यायिक ढांचे में बदलाव ही है एकमात्र समाधान रिटायर्ड जस्टिस पवित्र सिंह न्यायिक प्रणाली में सुधार के लिए न्यायिक ढांचे में बदलाव की वकालत करते हुए रिटायर्ड जस्टिस पवित्र सिंह ने कहा है कि जब तक न्यायिक ढांचा पूरी तरह से दुरुस्त नहीं होगा, जनता को बेहतर न्याय नहीं मिल सकता। इसके लिए जरूरी है, सबसे पहले जजों के रिक्त स्थानों को भरने के साथ निचले स्टाफ की पर्याप्त नियुक्ति हो, ताकि मानव क्षमता के अभाव में कोई केस न लटके। |
जवाबदेही सुनिश्चित करने को प्रभावी तंत्र जरूरी रणदीप सिंह सुरजेवाला, वरिष्ठ अधिवक्ता एवं जनस्वास्थ्य एवं अभियांत्रिकी मंत्री, हरियाणा देश की आजादी के छह दशकों ने यह साबित कर दिया है कि भारतीय न्यायपालिका ने मोटे तौर पर चुनौती का सामना किया है। फिर भी हाल के समय में कुछ परेशान करने वाली घटनाएं चिंता का विषय हैं।देश के सर्वोच्च न्यायविदों में से एक तथा 14वीं लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने एक बार टिप्पणी की थी- विश्व में भारत तीन बेजोड़ बातों के लिए विख्यात है- सांसद अपने स्वयं के वेतन का निर्णय करते हैं, न्यायाधीश अपना चयन खुद करते हैं तथा संसद अपना स्वयं का टीवी चैनल चलाती है। |
न्याय को प्रभावित करते हैं धनी लोग देश बंधु सूद, अध्यक्ष, हिप्र सिटीजन फोरम भारत में अक्सर धनी लोग ही न्याय को प्रभावित करते हैं व जहां तक न्यायालय में लंबित मामले होने का विषय है उसके लिए न्यायपालिका को दोषी नहीं माना जाना चाहिए। न्याय मिलने में देरी होती है उसके लिए भी न्यायालय को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। वजह यह कि जब भी कोई व्यक्ति व भुक्तभोगी न्याय के लिए अदालत की शरण में जाता है तो वह अपना मुकद्दमा तो दायर कर देता है लेकिन उससे संबंधित दस्तावेज व अन्य सूचनाएं या तो अधूरी होती है दूसरे उन्हें प्राप्त करने में ही लंबा समय बीत जाता है। |
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