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मुकदमों के 'समंदर' में किनारा नहीं
अदालत में लंबित मुकदमों का जिक्र हो तो बरबस ही बड़े मियां-छोटे मियां की कहावत जुबां पर आ जाती है। निचली अदालतों में भी मुकदमों की संख्या सुरसा के मुंह की भांति बढ़ती गई है। हाल यह है कि निचली अदालतों में मुकदमों का 'पहाड़' लग चुका है। इस बात के समर्थन में कुछ आंकड़े, जो जनपद न्यायालय की ओर से ही प्रदर्शित किये गए हैं और 31 मार्च 2010 तक के हैं। जनपद न्यायालय में आपराधिक मामलों के 1 लाख 65 हजार 629 मुकदमे लंबित हैं।
वैकल्पिक न्याय को नहीं मिली जमीन
लोक अदालत, मोटर वाहन दुर्घटना ट्रिब्युनल, उपभोक्ता फोरम, परिवार न्यायालय, टैक्स ट्रिब्युनल, प्रशासनिक ट्रिब्युनल और मध्यस्थता कानून ..। कहने को तो वैकल्पिक न्याय के मंचों की देश में कमी नहीं है यानी कि अदालतों पर बोझ कम करने और विवाद निबटाने के इंतजाम ढेर सारे हैं, मगर यह पूरा तंत्र व्यवस्था की खामियों और कानूनी पेचीदगियों में फंस कर न तो न्याय को तीव्र करा सका और न सुलभ।
कानून है तो कठिन ही होगा
नाट विद स्टैंडिंग.. कानूनों का सबसे परिचित शब्द, जो हर कानून की हर दूसरी-चौथी धारा के बाद लिखा जाता है। इसका मतलब यह है कि इस कानून के बावजूद सरकार इसके विपरीत प्रावधान कर सकती है जिसमें यह प्रावधान आड़े नहीं आएंगे। बात तो सीधी है मगर बहुतों की समझ में नहीं आती। आए भी कैसे देश के कानून लिखने का ढंग तो 1835 में लार्ड मैकाले ने तय किया था जो आज तक बदस्तूर जारी है। इसलिए आम लोगों को छोडि़ए कानून की भाषा से कानून लागू करने वाले भी चक्कर खा जाते हैं। और न्याय के लिए बनी अदालतें कानूनों की व्याख्या में उलझ जाती है। बेवजह के विवाद और मुकदमों के ढेर का एक कारण यह भी है।
बहुत महंगा पड़ता है इंसाफ
दरअसल हमारे यहां गरीब के लिए इंसाफ की पैरवी भी सजा से कम नहीं है जबकि अमीरों के लिए मुकदमे रोजमर्रा की बात हैं। मुफ्त कानूनी सहायता के तहत गरीबों को मुकदमा लड़ने के लिए वकील तो सरकार दे देती है लेकिन जमानत की रकम और जमानती का इंतजाम हर अभियुक्त को खुद करना पड़ता है जो गरीबों के लिए आसान बात नहीं है। देश में बहुत से कैदी सिर्फ इसलिए जेल काट रहे हैं क्योंकि उनके पास जमानत देने के लिए कुछ नहीं है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति का अंधेरा कोना
जजों की नियुक्ति पर सरकार और न्यायपालिका के बीच अधिकारों की खींचतान पुरानी भी है और ताजा भी। शुरुआत के दशक में तो सरकार की ही चली लेकिन बाद में एक मौका मिलते ही सुप्रीम कोर्ट के कॉलीजियम ने व्यवस्था हाथ में ले ली। अलबत्ता पारदर्शिता फिर भी नहीं आई। जजों की नियुक्तियों पर सरकार का नियंत्रण तो विवादित था ही, मौजूदा नियुक्ति प्रक्रिया पर भी अपारदर्शिता के आरोप लगते रहे हैं।
मी लॉर्ड के लिए भी तो हो कोई कानून?
वी रामास्वामी, सौमित्र सेन और पीडी दिनकरन के बीच सिर्फ इतनी ही समानता नहीं है कि तीनों न्यायमूर्ति हैं। इन तीनों न्यायाधीशों पर न्याय का दामन दागदार करने के आरोप भी लगे। यही नहीं, इनको पद मुक्त करने के लिए संसद में महाभियोग के प्रस्ताव लाए गए या लाने की शुरुआत की गई। पिछले 60 सालों में कई बार भ्रष्टाचार की काली छाया न्याय की सबसे पवित्र कुर्सी तक पहुंची है लेकिन हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों पर कार्रवाई के कानून का अंधेरा कायम रहा है।
इसलिए मिलती है तारीख पर तारीख
देश में लंबित मुकदमों की समस्या से निबटने के प्रयासों का अगर एक रोचक इतिहास है तो उतना ही दिलचस्प ब्योरा इन उपायों यानी समितियों और आयोगों की सिफारिशों के हश्र का भी है। अगर इन सिफारिशों को लागू कर दिया गया होता तो आज हमारी न्याय व्यवस्था मुकदमों के पहाड़ तले न दबी होती। सुप्रीम कोर्ट से बेहतर और बानगी क्या होगी जहां 1950 में 690 मुकदमे लंबित थे और इस समय 54,864 मुकदमे लंबित हैं।
फाइलों के ढेर में दबा इंसाफ
हमारे यहां न्याय में देरी प्रबंधन की समस्या भी है। अदालतों में अभी भी पचास साल पुराना सिस्टम लागू है। जजों, इमारतों, ढांचागत संसाधनों व कोर्ट स्टाफ की भी भारी कमी है कंप्यूटरीकरण पुराने मुकदमों की गति से चल रहा है। रिकार्ड रखने की प्रणाली बाबा आदम के दौर की है। मुकदमों का मौजूदा ढेर अभी ही डराने लगा है। सोचिए, आगे क्या होगा! पढ़ी लिखी आबादी और शिक्षा के अधिकारों जैसे इंतजामों के बाद अगले 20 सालों में मुकदमों की संख्या में भारी बढ़ोतरी होने की संभावना है। ऐसे में 2030 तक सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय दस लाख लोगों पर 50 न्यायाधीशों के अनुपात को हासिल करना होगा।
इस अंधेर के लिए सरकारें भी जिम्मेदार
हैरानी की बात नहीं है कि अदालती रिकार्डो में भी सरकार सबसे बड़ी मुकदमेबाज है। निचली अदालतों से हारना और ऊपर की अदालतों में अपील। खर्च पर खर्च, पेंच पर पेंच और देरी पर देरी। साढ़े तीन करोड़ लंबित मुकदमों में बड़ी हिस्सेदारी सरकार की है। अब तो सरकार खुद अपने ही मुकदमों से उकता गई है। इसलिए नेशनल लिटिगेशन पॉलिसी बना कर अपने मुकदमों की छंटाई-बिनाई शुरू की है।
इंसाफ में देर का अंधेर
कोई गिनना तो शुरू करे..अदालतों में देर से अंधेर की फेहरिस्त बहुत लंबी हो सकती है। यह तो महज कुछ बड़े चर्चित मामलों की बानगी है जिन्हें सब जानते हैं। साढ़े तीन करोड़ लंबित मुकदमों से दबी भारतीय अदालतों में पता नहीं कितने, कौन, कहां और कब से तारीखों के फेर में लटके हैं। इनके लिए न्याय का मतलब ही समाप्त हो चुका सा लगता है। यह मुवक्किलों के लिए अंतहीन त्रासदी से कम नहीं है।
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