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अब तो भीख जैसा लगता है हक मांगना
इंजीनियर राहुल रैना का आज देश की न्यायपालिका पर से विश्वास उठ गया है। राहुल को लगता है कि अदालतों में उन्हीं की सुनी जाती है जिनकी जेब में पैसा होता है। सिर्फ उन्हीं को हक और इंसाफ मिलता है जो समाज में दबदबा या न्यायपालिका से जुड़े लोगों से संबंध रखते हैं, आम आदमी के लिए कानून पूरी तरह से अंधा है। पुरखू कैंप निवासी राहुल की यह राय ऐसे ही कायम नहीं हुई। राहुल के अंकल राजनाथ भट्ट का तीन माह पूर्व निधन हो गया था।
साख और मिसाल दोनों बना न्याय
न्याय में हमेशा देरी नहीं होती। अदालतों ने कई बार त्वरित न्याय देकर मिसाल कायम की है। देश की साख से जुड़े एक मामले में यहां की एक अदालत ने महज आठ सुनवाई में फैसला सुनाकर उदाहरण पेश किया। यह मामला था जर्मनी की युवती को अगवा कर उससे सामूहिक दुष्कर्म करने का। अदालत ने इस मामले में पांच अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
एक माह बोले तो 15 साल
करीब तीन दशक पूर्व जब चंडीगढ़ की महिला चिकित्सक एस कटारिया ने नीलामी में दस मरले का प्लाट दो लाख रुपये में खरीदा होगा तो वह बहुत खुश होंगी लेकिन बाद में उन्हें लगा होगा कि उफ! ये तो पंगा ले लिया। कारण, उन्हें अपने ही प्लाट पर कब्जा लेने में 29 साल लग गए। धन की बर्बादी व मानसिक परेशानी हुई सो अलग। यहां खास बात यह भी कि हालांकि हाईकोर्ट ने मामले का निपटारा करने के लिए 1995 में समयावधि एक माह तय कर दी थी लेकिन स्वयं उसने ही इसका निपटारा करने में डेढ़ दशक लगा दिए।
न्याय की अलख जगाएगा अभियान
दैनिक जागरण द्वारा जनजागरण अभियान के रूप में न्यायिक सुधारों के लिए जलाई गई मशाल से बदलाव की रोशनी आम आदमी तक पहुंचेगी। लीक से हटकर किया गया यह प्रयास हर आम व खास व्यक्ति से सीधे जुड़ा है। अधिवक्ताओं ने जनजागरण अभियान में कुछ इसी अंदाज में विचार रखे और तमाम सुझाव भी दिए।
3600 तारीखें 33 जज तीन पीढियां= 1 केस
पंजाब एंव हरियाणा हाईकोर्ट ने पिछले दिनों एक 73 साल पुराने केस का निपटारा किया था। यह इस क्षेत्र का अब तक का सबसे पुराना केस कहा जा सकता है। अविभाजित भारत के लाहौर में दायर किए गए इस केस की बानगी देखिए। इस केस में लगभग 3600 तारीखें पड़ीं। 37 जजों ने इसकी सुनवाई की। केस पर 40 लाख रुपये खर्च हुए। यहीं नहीं, फैसला आने में लगभग तीन पीढि़यों को इंतजार करना पड़ा।
पहली बार बन रहा सूचना सचिवालय
सुप्रीमकोर्ट में पारदर्शिता की नई पहल शुरू हो गई है। यहां पहली बार एक सूचना सचिवालय स्थापित किया जा रहा है जो मीडिया और आम जनता को न्यायपालिका से जुड़ी सूचनाएं मुहैया कराएगा। मुख्य न्यायाधीश एस. एच. कपाडि़या ने सचिवालय स्थापित करने की घोषणा कर दी है।
चक्करों के चक्रव्यूह से टूटती है न्याय की आस
इस समय देश की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ मुकदमे विचाराधीन हैं। इसका मतलब यह नहीं कि जनता को देश की न्याय प्रणाली में बहुत ज्यादा विश्वास है। कानून-व्यवस्था में विश्वास रखने वालों को लंबे समय तक न्यायालय के चक्कर काटने के बाद भी न्याय नहीं मिलता है तो उनकी आस धूमिल होने लगती है। बेहतर न्याय लाएगा बदलाव के नारे के तहत न्यायिक प्रणाली को वर्तमान दौर के अनुकूल बनाने के लिए आम जनता की राय को मंच देने के लिए दैनिक जागरण द्वारा दिल्ली की जिला न्यायालयों में शुरू किए गए अभियान के तीसरे दिन भी वकीलों व आम जनता ने बढ़-चढ़कर भाग लिया।
दीवानी मुकदमे : मानो द्रोपदी का चीर
ममफोर्डगंज की उर्मिला त्रिपाठी अपने एक सिविल वाद में पिछले 35 साल से लगातार अदालत जा रही हैं। इतने सालों में उनके बाल पक गए। बच्चों की शादी हो गई और खुद अब उस दौर में हैं जहां चलना-फिरना कठिन हो जाता है, लेकिन मुकदमा है कि जहां का तहां। तारीख दर तारीख और इस अदालत से उस अदालत तक का सफर। न्याय के रूप में पिछले पैंतीस सालों से यही हासिल है। अब भी दूर तक उन्हें न्याय की आस नहीं नजर आती। मुकदमा न हुआ, द्रौपदी का चीर हो गया। न ओर नजर आता है न छोर।
'अंग्रेजों की न्‍याय प्रणाली ढो रहे हैं हम'
हमारे देश में विश्व की प्राचीनतम न्याय व्यवस्था है। जब अधिसंख्य देश वन विधि से संचालित होते थे, उस समय भी भारत में सुगठित, निष्पक्ष व स्वतंत्र न्याय व्यवस्था थी। प्राचीन न्याय व्यवस्था का यह स्वरूप रामायण, महाभारत के साथ-साथ मनु, याज्ञवल्य, कात्यायन, बृहस्पति, पाराशर आदि महान विधिवेत्ताओं की संहिताओं व स्मृतियों में आज भी संरक्षित है। यहां न्याय का मूल स्रोत सम्राट था, पर वह भी विधि के अधीन था। महाभारत के शांतिपर्व में लिखा है कि जो राजा अपनी प्रजा की रक्षा करने में विफल रहे, उसका वध पागल कुत्ते की तरह कर देना चाहिए। इसके साथ ही देश में स्वतंत्र व विधि द्वारा नियंत्रित न्यायपालिका थी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट : एशिया की सबसे बड़ी बार
1857 की क्रांति के बाद सन् 1858 में ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी से अपने हाथ में ले लिया। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1861 में कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट को समाप्त कर विभिन्न शहरों में हाईकोर्ट स्थापित करने का कानून बनाया। 17 मार्च 1866 को रॉयल चार्टर के जरिये नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्स की राजधानी आगरा की सदर दीवानी अदालत के स्थान पर हाईकोर्ट की स्थापना की गयी जो तीन वर्ष के भीतर ही इलाहाबाद में सरोजनी नायडू मार्ग स्थित राजस्व परिषद के भवन में स्थानान्तरित हो गया।
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