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आधे से अधिक पद खाली, कैसे मिले न्याय
इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमों की बाढ़ व न्यायाधीशों की कमी अब अखरने लगी है। याचियों को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत दाखिल होने वाली याचिकाओं को सुनवाई के लिए लम्बे समय तक इंतजार करना पड़ रहा है। हाईकोर्ट में कुछ अदालतों के पास इतनी नई याचिकाएं आ रही हैं जिन्हें सुनने में ही पूरा दिन बीत जाता है।
मरने के बाद मिला प्रमोशन
मरने के बाद प्रमोशन (पदोन्नति)। सुनने मे बड़ा अटपटा सा लगता है, लेकिन देश की न्यायिक प्रणाली ने इसे भी संभव कर दिखाया। जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने एक ऐसे व्यक्ति की प्रमोशन के निर्देश जारी किए जो इंसाफ की जंग लड़ते-लड़ते दम तोड़ चुका है।
दिन, महीने, साल बीते पर फैसला..
28 वर्ष, 10 महीने और 1 दिन का समय बीत गया, मुकदमे की फाइल दस जजों की निगाहों से होकर गुजर गयी पर फैसला नदारद। मामला है वार्ड पार्षद व लोकदल पार्टी के तत्कालीन प्रदेश संगठन मंत्री शिवनन्दन प्रसाद चन्द्रवंशी हत्याकांड का। आरोप है कि पुलिस वालों ने 20 सितम्बर 1981 को कदमकुआं थाना क्षेत्र के मुसल्लमपुर के चाईटोला मोहल्ला में गुप्ती से मारकर उनकी हत्या कर दी थी।
चारा घोटाला: महत्वपूर्ण मामलों में फैसले अब भी दूर
संयुक्त बिहार के चर्चित चारा घोटाले के 18 मामलों में अभी भी फैसले का इंतजार है। कई लोगों को सजा हो चुकी है, पर महत्वपूर्ण मामलों में हो रही देरी कहीं-न-कहीं न्यायिक प्रक्रिया पर मुकदमों का बोझ और संसाधन की कमी की ओर भी इशारा करती है। लोग न्याय के लिए टकटकी लगाए रहते हैं, पर विलंब इसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। अपने समय के सबसे ज्यादा चर्चित एक हजार करोड़ के चारा घोटाले के कुल 53 कांडों में से 35 मुकदमों पर फैसला आ चुका है।
निचले स्तर पर नियुक्त हों व्यावहारिक रूप से सक्षम जज
बढ़ते लंबित मामले और अदालत में तारीख पर तारीख का एक बड़ा कारण निचले स्तर पर काम करने वाले जजों का व्यावहारिक रूप से सक्षम न होना भी हो सकता है। ऐसे में जरूरी है कि मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या सिविल जज के पद पर उन्हीं लोगों की नियुक्ति की जाए, जिन्होंने कम से कम पांच वर्ष तक प्रैक्टिस की हो।
मारीपत में सिख विरोधी दंगा, इंसाफ अभी बाकी है ..
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारों को तो फांसी पर चढ़ा दिया गया, लेकिन सिख विरोधी दंगों में जो लोग मारे गए, उनके कातिलों का क्या हुआ? 25 साल बीत चुके हैं, लेकिन इंसाफ अभी बाकी है और मामले की अगली सुनवाई अब 5 अगस्त को होनी है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश नफरत की आग में जल उठा था।
न्याय की उम्मीद में खो बैठा सुधबुध
देश की सीमा पर दुश्मनों के दांत खट्टे कर सेवानिवृत्त हुआ श्यामलाल अब न्याय प्रणाली के आगे हार मान चुका है। पिछले 20 साल से अपने रिश्तेदारों के साथ चले आ रहे भूमि विवाद को लेकर अदालतों के चक्कर काटते-काटते अब वह अपनी सुधबुध तक खो बैठा है।
मुर्दा जिंदा निकला, मारे गए निर्दोष
अब इसे हमारी न्याय प्रणाली की खामी कहें या पुलिस की जांच प्रणाली का दोष लेकिन मारे तो गए बेचारे निर्दोष ही। पांच लोगों ने एक ऐसे अपराध की सजा काटी जो उन्होंने किया ही नहीं। उन्हें हत्या के एक केस में उम्रकैद की सजा हो गई लेकिन करीबन आठ साल बाद जाकर खुलासा हुआ कि जिसकी हत्या के आरोप वे सजा काट रहे हैं, वह तो जिंदा है।
तय हो वादों के निस्तारण की समय सीमा
कहते हैं भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। ऐसे ही हमारे न्याय के मंदिरों में भी अंधेर तो नहीं है, मगर देर जरूर हो जाती है। आज दैनिक जागरण के बेहतर न्याय लायेगा बदलाव जनजागरण अभियान के दौरान अधिवक्ताओं व वादकारियों ने भी इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया और कहा कि कभी कभी तो न्याय इतनी देर से मिलता है कि वह किसी अंधेर से कम नहीं होता। अधिवक्ताओं ने कहा कि लिए वादों के निस्तारण के लिए समय सीमा निर्धारित होनी चाहिए।
सच कहें तो फैमिली कोर्ट में मत्स्य न्याय
सबसे पहले पारिवारिक न्यायालय में चल रहे नगर के सर्वाधिक चर्चित मुकदमे की बात। हरियाणा के एक चिकित्सक की शादी नगर के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुई। शादी के बाद पति-पत्नी में विवाद बढ़े। चिकित्सक ने वर्ष 2002 में धारा 12 के तहत शादी को शून्य घोषित करने के लिए हरियाणा में मुकदमा किया। बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से उसे इलाहाबाद हाईकोर्ट भेजा गया। यहां से उसे प्रधान पारिवारिक न्यायाधीश की अदालत में भेज दिया गया।
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