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उम्र तय ही नहीं हो सकी उम्रकैद की
हत्या एवं दूसरे संगीन मामलों में विभिन्न अदालतों से उम्र कैद की सजा पाये लोगों के साथ भी इंसाफ का एक हिस्सा, अब तक अंधेर कोनों में ही है। इन कैदियों में से ज्यादातर अपनी सजा की मियाद काट चुके हैं लेकिन अब तक उनकी रिहाई नहीं हुई। इनमें ऐसे कैदियों की भी तादाद कम नहीं है जो अब चल- फिर सकने से भी लाचार हैं।
व्यस्तता की जंजीरों में जकड़ा 'मान'
संगीन अपराधों के मामलों में न्याय के लिए भले ही सालों साल बीत जाएं लेकिन देश की बड़ी हस्तियों के मानहानि मामले सात बरसों में भी आगे न सरकें, इस पर अचरज होना स्वाभाविक है। केंद्रीय विदेश मंत्री आनंद शर्मा, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और हिमाचल के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल जैसे राजनेताओं के मामलों पर सुनवाई सिर्फ इसलिए पूरी नहीं हो रही क्योंकि ये सभी बड़ी राजनीतिक हस्तियां 'अति-व्यस्त' हैं। और बगैर प्रमाण और तमाम सुनवाईयों के, अदालत भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पर रही। परिणामस्वरूप तारीख पर तारीख और केस आगे से आगे खिंचता जा रहा है।
न्याय का मंदिर: दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट की स्थापना 31 अक्टूबर 1966 को की गई। शुरुआत में लेटर्स पेटेंट द्वारा 21 मार्च 1919 को स्थापित लाहौर स्थित हाईकोर्ट आफ ज्यूडीकेचर के न्यायिक अधिकार क्षेत्र के तहत पंजाब और दिल्ली प्रांत आते थे। यह स्थिति भारतीय स्वतंत्रता कानून,1947 तक बनी रही, जब भारत और पाकिस्तान अलग-अलग गणराज्य बने।
जिंदा के कत्ल की सजा मिली उम्रकैद
अब इसे हमारी न्याय प्रणाली की खामी ही कहेंगे कि पांच लोगों ने एक ऐसे अपराध की सजा काटी जो उन्होंने किया ही नहीं। उन्हें हत्या के एक केस में उम्रकैद की सजा हो गई। आठ साल बाद खुलासा हुआ कि मृतक तो जिंदा है। इतने साल बाद जब न्याय मिला तो उनका सब कुछ तबाह हो चुका था। एक आरोपी की पत्‍‌नी ने दूसरा विवाह कर लिया तो एक के मां-बाप व दो बेटियों की इलाज के अभाव में मौत हो गई।
30 वर्ष की कानूनी लड़ाई, मिला बकाये का फकत एक हिस्सा
राज्य की न्यायपालिका में कुछ ऐसे मामले हैं जिन्हें बयां करें तो होश उड़ जाए। राजस्थान के परमाणु संयंत्र में कार्य करने वाले एक वैज्ञानिक को 22 जुलाई 1975 को बर्खास्त कर दिया गया। उन्होंने 30 वर्ष की कानूनी लड़ाई लड़ी मगर मिला बकाये का महज एक हिस्सा। वैज्ञानिक पर आरोप लगा कि खुदकशी की नीयत से उन्होंने हैवी वाटर पी लिया। वैज्ञानिक के अनुसार ब्वायलर के पाइप में रिसाव से उनके मुंह में पानी घुस गया।
फैसला नापता, 56 साल, 19 जज और 550 तारीखें
शेख मोहम्मद हबीबुल्लाह बनाम मोहन लाल वगैरह मुकदमे के मुद्दई (वादकारी) को इस दुनिया से गुजरे 34 साल हुए। मई 1954 में पटना व्यवहार न्यायालय के अवर न्यायाधीश की अदालत में दाखिल इस सिविल वाद (संख्या 18/1954) में सुनवाई की पहली तारीख 22 जून 1954 थी। मूल मुकदमे से निकले दूसरे विविध वादों में बंटकर, कई पेचीदगियों में छितराया यह मामला, 56 साल और अब तक सुनवाई की 550 तारीखों के बाद, पटना सिटी सिविल कोर्ट के अवर न्यायाधीश पंचम की अदालत में है।
कौन सुने फरियाद कैसे होगा इंसाफ
बड़ी तादाद में लंबित मुकदमों के पहाड़ तले, पटना उच्च न्यायालय में भी वादकारी का हित और न्याय का मकसद दोनों ही अंधेर कोनों के हवाले होता जा रहा है। उच्च न्यायालय में बीते साल तक लंबित मुकदमों की कुल संख्या तकरीबन 13 लाख थी जिसमें सिविल मामले 80 हजार और आपराधिक मामले 12 लाख से ज्यादा थे जो कभी पीठ न बैठ पाने से लेकर दूसरी कई जटिल प्रक्रियाओं व अड़ंगों से मुवक्किल की सांस अटकी यात्रा में, साल-दर-साल बस तारीखों में घिसटते रहे हैं।
आगे आये हुकूमत का हलका तो बात बने
तमाम व्यावहारिक दिक्कतों के बावजूद, बुनियादी मामलों में अगर न्यायपालिका को कार्यपालिका (प्रशासन) का ईमानदार सहयोग मिल जाये तो त्वरित और बेहतर न्याय किसी परकोटे पर नहीं टंगा रह जायेगा। यह कई विधि जानकारों की आम राय है। वैसे ऊपरी से निचली अदालत तक,न्यायाधीशों से लेकर जुडिशियल अफसरों तक के अभी भी खाली पड़े पद और गैरजरूरी मुकदमों की लंबी सूची,न्याय की कछुआ चाल के लिए कम जिम्मेदार नहीं है।
मूंछ की लड़ाई से भी मुकदमों का बोझ
बिहार में मुकदमों की संख्या कैसे बढ़ी, अगर इस पर हम विचार करते हैं तो इसमें मूंछ की लड़ाई बहुत बड़ी कारक है। बड़ी संख्या में ऐसे लोग ग्रामीण अंचल में मिलेंगे जो पीढ़ी दर पीढ़ी मूंछ की लड़ाई के रूप में मुकदमेबाजी कर रहे हैं और अदालत के चक्कर लगाते-लगाते अपना सब कुछ बर्बाद कर रहे हैं। यही नहीं अच्छी नीतियों को लेकर स्थापित ट्रिब्यूनल, उपभोक्ता फोरम, ग्राम कचहरी और मध्यस्थता कानून भी कारगर ढंग से स्थापित नहीं हो पाया।
22 साल का महायुद्ध
इस पूरी कहानी को सिक्के के दूसरे पहलू के रूप में भी देखा जा सकता है कि न्याय के दरबार में देर भले ही है, अंधेर नहीं। बहरहाल, इस देरी को क्या अंधेर नहीं माना जा सकता कि एक अदद पालतू जानवर पर अपना हक पाने के लिए फरियादी को 22 साल इंतजार करना पड़े। न्याय के पक्ष-विपक्ष और फैसले पर कोई टिप्पणी न करें तो भी न्यायालय में एक हथिनी के लिए दो पक्षों में चला युद्ध पूरे सिस्टम पर कई सवालिया निशान तो लगाता ही है।
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