Articles
|
केस डायरी की मांग पुलिस के ठेंगे पर सरकार बनाम सर्वानन्द वगैरह।.. विचारण (ट्रायल) के मद्देनजर इस मामले को सत्र न्यायालय में स्थानान्तरित करने के लिए तकरीबन 14 न्यायिक अधिकारियों द्वारा केस डायरी की तलब, 34 साल 5 महीने 25 दिन बाद भी पुलिस मनमानी के ठेंगे पर है। फुलवारी शरीफ थाने में दर्ज यह मामला( संख्या 08/1976 ) 1976 का है जिसका फैसला तो दूर ट्रायल ही अभी तक नहीं शुरू हो सका। मामले की प्राथमिकी 09 फरवरी 1976 को दर्ज की गयी थी। केस डायरी किसी भी आपराधिक मामले में उसकी जांच का पूरा ब्योरा होता है। |
21 साल सिर्फ कदमताल 21 साल सिर्फ कदमताल। अब इसे क्या कहा जाए कि अदालत में हत्या मामले की जांच की इजाजत देने की हां या ना में ही दो दशक से अधिक का समय बीत गया। और न जाने अभी कितना समय और लगेगा। उसके बाद कहीं जाकर मुकदमा शुरू होगा। फिर जांच होगी। ऐसे में तो लगता है जांच पूरी होने व दोषियों को सजा दिलाने में ही एक पूरी सदी बीत जाएगी। यहां बात हो रही है शहीद भगत सिंह के दामाद की हत्या की। |
सरल व त्वरित न्याय की वकालत भविष्य के कानूनविदें ने दैनिक जागरण के न्यायिक सुधार पर केंद्रित अभियान के तहत बुधवार को आयोजित पेपर प्रेजेंटेशन कार्यक्रम में बेहद उत्साह के साथ खूब बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। शिमला स्थित इंस्टीट्यूट आफ लीगल स्टडीज में आयोजित कार्यक्रम में कानून के छात्रों की कुल दस टीमों ने न्यायिक सुधार पर केंद्रित विभिन्न विषयों पर पेपर प्रेजेंट किए। इन विषयों में समय पर न्याय और लंबित मुकदमें, पारदर्शी न्याय व भ्रष्टाचार की समस्या, त्वरित व सक्षम न्याय, सुलभ न्याय व महंगी होते न्याय की समस्या शामिल थे। |
देर से अंधेर की नौबत नहीं आने देगी नई पौध वन्स ए पर्सन इज लिटिगेंट इज लिटिगेंट फार लाइफलांग, ये पंक्तियां बेशक निराशा के गर्त में ले जाती हैं, लेकिन इस निराशा में भी आशा की एक किरण टिमटिमा रही है। भविष्य में न्याय की नाजुक डोर संभालने वाले कानून के छात्र भारतीय न्याय व्यवस्था की खामियों पर इतनी बारीक नजर रखते हैं कि आशा की जा सकती है, उनके हाथ में देश की बेहतरी सुरक्षित है। |
न्याय का मंदिर: पटना हाईकोर्ट 22 मार्च 1912 को भारत के गवर्नर जनरल की घोषणा के बाद बिहार और उड़ीसा के क्षेत्र जो पूर्व में बंगाल की प्रेसीडेंसी फोर्ट विलियम में शामिल थे, को अलग-अलग प्रांत की स्वतंत्र पहचान दी गई। इसके साथ ही लेटर्स पेटेंट द्वारा 9 फरवरी 1916 को पटना हाईकोर्ट अस्तित्व में आया। इसकी एक सर्किट सिटिंग कटक में भी स्थापित की गई। |
इंतजार ने उठा दिया न्याय प्रक्रिया से एतबार जागो ग्राहक जागो का नारा देकर उपभोक्ताओं को हक दिलाने का दम भरने वाली उपभोक्ता फोरम खुद उच्च अदालतों के आदेशों में होने वाली देरी के चलते असहाय हो गई हैं। एक कंपनी से बीमा कराकर भविष्य सुरक्षित करेने की आस में मेरठ के विनोद गौड़ ने 21 साल पहले दुकान की पॉलिसी ली थी। कुछ दिन बाद ही चोरों ने दुकान से सारा सामान उड़ा दिया। |
सुप्रीम कोर्ट से 12 साल में लौटी फाइल अब इसे कानून की जटिलता कहें या प्रक्रिया में खामी, लेकिन वास्तविकता यह है कि खामियाजा आम आदमी को भुगतना पड़ता है। अपनी जमीन हासिल करने के लिए पटियाला के एक परिवार ने 31 जुलाई 1980 को अदालत की शरण थी, लेकिन आज तक फैसला नहीं हो सका है। इतना ही नहीं यह मामला करीब दस बार हाईकोर्ट और एक बार सुप्रीम कोर्ट का चक्कर लगा चुका है, लेकिन कुछ तकनीकी कमी की वजह से 1996 में यह केस सुप्रीम कोर्ट ने वापस निचली अदालत में भेज दिया। |
उफ! 7 माह, 7 तारीख, 7 हड़ताल सुल्लखन सिंह। टाडा एक्ट में मुकदमा कायम हुआ 1993 में। इस समय उम्र है 85 साल। उम्र के इस पड़ाव पर उनसे चला भी नहीं जाता। मजबूरी यह है कि उन्हें हर तारीख पर हाजिर होना ही पड़ता है। कारण वह जमानत पर हैं। पता नहीं किस तारीख पर उनकी सुनवाई हो और उनकी गैर मौजूदगी अदालत को खटक जाए। |
यूपी में न्याय की यह है रफ्तार! उत्तर प्रदेश में बढ़ते मुकदमों की रफ्तार को आंकना है तो आपको इस आंकड़े पर गौर करना होगा। दिसम्बर 2008 में यहां लम्बित मुकदमों की संख्या थी 56 लाख 94 हजार। दिसम्बर 2009 यह संख्या 62 लाख का आंकड़ा पार कर गई। यानी एक साल में छह लाख से ज्यादा नये मुकदमें दाखिल हो गए। |
समझौतों से कम हो सकता सरकारी मुकदमों का बोझ अदालतों में जनता ही नहीं बल्कि सरकार के खिलाफ भी हजारों मुकदमे लंबित हैं जिसमें फर्म विवाद, भूमि अधिग्रहण, सरकारी आवासों व संविदा संबंधी विवाद शामिल हैं। इन्हें आर्बीट्रेशन प्रक्रिया (आपसी सुलह समझौता) से हल किया जा सकता है लेकिन अदालतों में जाने के बाद मुकदमों में तारीख और समय दोनों लगता है। |