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इंसाफ दिलाने को पोती ने उठाई कानूनी मशाल
कानून के अंधेरे गलियारों में जहां कुछ लोग गुम होकर रह जाते हैं, वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं जो इस राह को रोशन करने के लिए खुद ही मशाल थाम लेते हैं। ऐसा ही कठुआ की नय्यर शर्मा ने भी किया। अपने दादा व उनके बाद पिता को कानून की अंधेरी गलियों में भटकता देख उन्होंने खुद कानून की मशाल हाथ में उठाई और आज अपने परिवार ही नहीं बल्कि उनके जैसे दर्जनों परिवारों के लिए इंसाफ की लड़ाई लड़ रही हैं।
13 वर्ष बाद भी नहीं मिला इंटर का सर्टिफिकेट
जीनियर बनने की ख्वाइश लिये शिवकुमार नेपाल से बिहार आया था इंटरमीडिएट करने के लिये। लेकिन यहां आकर इंटरमीडिएट काउंसिल के फेर में ऐसा फंसा कि 13 वर्षो से विभिन्न अदालतों के चक्कर लगाने के बाद इंटरमीडिएट का सर्टिफिकेट मिलना तो दूर फर्जी सर्टिफिकेट बनाने के मामले में विजिलेंस के फेर में जरूर फंस गया। किसी तरह हाईकोर्ट से उसे इस मामले में अग्रिम जमानत मिल पायी है लेकिन सर्टिफिकेट का मामला अभी भी अधर में है।
और न्याय दफन होने से बच गया
न्याय दफन होने से बच गया। पटना उच्च न्यायालय की दखल के बाद विधवा को न्याय की रोशनी दिखने लगी है। मुख्य न्यायाधीश जम्मू-कश्मीर वरीन घोष (तत्कालीन न्यायाधीश पटना उच्च न्यायालय) की सूझबूझ से अपराधी, भू-माफिया और खाकीवर्दी वाली तिकड़ी की साजिश नंगी हो चुकी है और पीडि़ता का मामला न्याय की राह आ गया। गया में रमना रोड में रहने वाली विधवा राजकुमारी देवी की लाखों की जमीन को भू-माफिया ने षड्यंत्र रचकर कब्जा करना चाहा। पुलिस की मिलीभगत से विधवा के पुत्र को जेल भेज दिया गया।
तारीख पर आइए और तारीख लेकर जाइए
कहते हैं हिसाब-किताब कभी नहीं मरता। भारतीय न्यायिक व्यवस्था मुकदमों को आसानी से दफन भी नहीं होने देती। वे भी लंबी उम्र का वरदान प्राप्त किये रहते हैं। मुकदमे नहीं मरते मगर दुश्मनी पलती रहती है। इसकी प्रत्येक तारीख राख में दबे वैमनस्य की आग को जीवित रखती है। न्यायालीय परिसर में एक कहावत जोरों से प्रचलित है-तारीख पर आईए और तारीख लेकर जाईए।
केस लड़ने के लिए बेटों को बनाया वकील
चकबंदी में फंसी 9.5 बीघा जमीन की जंग में दो कत्ल हो गए। केस लड़ते हुए पीढि़यां बदल गईं। 40 सालों में 960 तारीखें पड़ चुकी हैं। कुल मिलाकर दो परिवारों के लिए जिंदगी के 40 वसंत बर्बाद हो चुके हैं, लेकिन इंसाफ अभी बाकी है। यहां तक कि वादी परिवार ने केस लड़ने के लिए अपने बेटों को वकालत की पढ़ाई करवाई और अब वे ही केस को लड़ रहे हैं।
बिहार सरकार को भी 14 साल से न्याय का इंतजार
यह सरकार की पीड़ा है। उसे भी समय पर न्याय नहीं मिल रहा। बिहार सरकार का खजाना लूटा गया। वह 14 साल से लुटेरों की अंतिम सजा के इंतजार में है। ऐसा कब होगा, कोई बताने की स्थिति में नहीं है। सीबीआई के विशेष न्यायाधीश एसके लाल ने चारा घोटाला के मामले (आरसी 20 ए/96) की सुनवाई करते हुए एक दिन खीझकर कहा था, इस मुकदमे को विशेष अदालत से निपटाने में कम-से-कम पांच हजार कार्य दिवस लगेंगे।
एक मुकदमे से बंधक बनी प्रोन्नति प्रणाली
सैकड़ों के मंसूबों से खेलने के लिए बस एक मुकदमा काफी है। कम से कम माध्यमिक शिक्षा विभाग में तो यही हुआ। यहां वरिष्ठता को लेकर कनिष्ठों के बीच जंग शुरू हुई और इसकी आग ने पूरे विभाग को लपेटे में ले लिया। परिणाम यह है कि विभाग में वर्षो से पदोन्नति का काम ठप पड़ा है। 1985 में विज्ञापित महिला पद पर चयन धांधलियों के आरोपों में फंस गया था।
बुनियाद पुरखों की हो, ढांचा बदल दीजिए
नए जमाने की नई पीढ़ी तेज रफ्तार जरूर दौड़ रही, पर अतीत की बुनियाद से बंधी हुई। देश में न्यायिक सुधार पर नई पीढ़ी के विचार मौजूदा व्यवस्था से थोड़े अलग-थलग जरूर हैं, पर देश के न्यायिक ढांचे से अलग नहीं। हां, यह पीढ़ी इसमें सुधार की गुंजाइश जरूर देखती है। यानी, जो महल बनना है उसमें थोड़े सुधार की जरूरत भर।
छोटी अदालतें, बड़ी मनमानी
सोरांव तहसील में दो परिवारों में कई सालों से मुकदमे चल रहे हैं। कारण, तीन लाठा भूमि का झगड़ा है, जिसका फैसला तहसील स्तर से अब तक नहीं हुआ। -मेजा के एक गांव में पारिवारिक रंजिश कई बार मारपीट का कारण बनी। थोड़ी सी भूमि के विवाद ने बड़ा रूप ले लिया। भूमि का विवाद अभी तक नहीं सुलझा है।
तारीख पर तारीख, परिणाम सिफर..
तारीख पर तारीख और परिणाम सिफर। 63 वर्षो से भूमि विवाद का एक मुकदमा आरा व्यवहार न्यायालय में आज भी लंबित है। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान 14 अप्रैल, 1947 को 14 बीघे भूमि के स्वामित्व को लेकर एकवना गांव निवासी विशेश्वर राय द्वारा दायर इस मुकदमे से जुड़े कई अधिवक्ताओं समेत लगभग 32 लोगों की मौत हो चुकी है। यह मुकदमा अब चौथी पीढ़ी लड़ रही है।
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