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एक दर्द जो छलक पड़ा
न्यायिक तंत्र में समग्र सुधार के लिए दैनिक जागरण के जन जागरण अभियान-बेहतर न्याय लाएगा बदलाव-के पहले दिन देश के अनेक हिस्सों में बड़ी संख्या में आम लोग, विधि छात्र, वादी-प्रतिवादी, अधिवक्ता और न्यायाधीश अपनी बात कहने के लिए उमड़ पड़े। ज्यादातर लोगों का समवेत स्वर यह था कि न्याय के लिए इंतजार अब और नहीं सहा जाता। जहां बहुत से लोगों ने पुराने कानूनों में बदलाव मांग की वहीं कई ने न्याय के लिए समय सीमा तय किए जाने की जरूरत जताई। एक बड़ी संख्या में लोग ऐसे थे जिन्होंने दैनिक जागरण के मंच से सिर्फ अपनी पीड़ा, हताशा, निराशा और बेचैनी बयान की। यहां पेश हैं कुछ चुनिंदा अंश।
न्याय की सर्वोच्च संस्था सुप्रीम कोर्ट
देश के संप्रभु गणराज्य बनने के दो दिन बाद न्याय की यह सबसे बड़ी संस्था अस्तित्व में आई। इसका उद्घाटन समारोह संसद भवन के महारानी के कक्ष में किया गया। इसी भवन में तब भी देश की संसद लगा करती थी। तब संसद के दोनों सदनों को काउंसिल आफ स्टेट और हाउस आफ द पीपुल कहा जाता था।
क्या है महाभियोग
हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को महाभियोग के जरिए ही पद से हटाया जा सकता है। महाभियोग यानी 'इमपीचमेंट' शब्द का लैटिन भाषा में अर्थ है पकड़ा जाना। इस शब्द की जड़ें भले ही लैटिन भाषा से निकलती हों, परंतु इस वैधानिक प्रक्रिया की शुरू आत ब्रिटेन से मानी जाती है। यहां 14वीं सदी के उत्तरार्ध में महाभियोग का प्रावधान किया गया था
न्याय क्या है?
'न्याय व्यवस्था का मुख्य काम सिर्फ विवादों को सुलझाना नहीं होता बल्कि न्याय की रक्षा करना भी है। न्याय व्यवस्था कितनी प्रभावी है, इसका निर्धारण इसी आधार पर होता है कि वह किस हद तक न्याय की रक्षा कर पाता है।
न्याय का जन जागरण
समाज को दिशा देने वाली राजनीति में सुधार के बगैर देश की अपेक्षाएं पूरी होना असंभव है और राजनीति में सुधार के लिए यह आवश्यक है कि चुनावी प्रक्रिया में सुधार हो, लेकिन जिस एक अन्य क्षेत्र में सुधार आवश्यक हो गए हैं वह है न्यायिक तंत्र। न्यायिक तंत्र में सुधार न होने का प्रत्यक्ष नजर आने वाला दुष्परिणाम यह है कि साढे़ तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं। चूंकि इस आंकड़े से सभी परिचित हैं इसलिए लंबित मुकदमों का अंबार अब किसी को चौंकाता नहीं, लेकिन न्याय के लिए प्रतीक्षारत साढे़ तीन करोड़ परिवारों के बारे में सोचें तो यह पता चलता है कि करीब 17-18 करोड़ लोग शिथिल न्यायिक तंत्र के शिकार हैं।
जरा खिड़की तो खोलिए मी लॉर्ड
सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता को अब तो कानून और तकनीक का भी सहारा मिल रहा है। फिर भी न्यायपालिका की इस बहस से दूरी बहुतों को खटक रही है। सूचना का अधिकार, न्यायाधीशों के लिए संपत्ति की घोषणा और जजों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे पारदर्शिता के नए मुद्दों से दोस्ती में न्यायपालिका को वक्त लग रहा है।
कानून की व्याख्या में उलझ जाती हैं अदालतें
नॉट विद स्टैंडिंग.. कानूनों का सबसे परिचित शब्द, जो हर कानून की हर दूसरी-चौथी धारा के बाद लिखा जाता है। इसका मतलब है कि इस कानून के बावजूद सरकार इसके विपरीत प्रावधान कर सकती है। बात सीधी है लेकिन समझ में नहीं आती।
क्या है न्याय?
क्या है न्याय? आजाद भारत में लिया गया एक संवैधानिक प्रण। आम आदमी को दी गई वो ताकत। जिससे वो अपने बुनियादी हक करता है हासिल। वो एहसास जिससे हम इस समाज में जीते है निर्भय होकर। एक प्रबंध जो रक्षा करता है हर नैतिक अधिकार की। न्याय जो बचाता है देश को अराजकता से। न्याय जो प्रजातंत्र के सिद्धांतों को बनाता है क्रियाशील। पर न्याय के मायने आज क्यों बदल गए हैं? आज कोई मुकदमा अगर अदालत में जाता है, तो उम्र बस फिर तारीखों में ही गुजरती है। जमीन का केस लड़ते-लड़ते हमारी चप्पले घिस जाती हैं, पर केस जिनसे और लंबा खिंचे, वो दलीलें नहीं घिसतीं। कठघरे में भी देखिए तो खड़ा नजर आएगा बस आ
युवा देश में उम्रदराज कानूनों का राज
नया देश, युवा पीढ़ी मगर कानून बाबा के जमाने के। भारत के कानून निर्माता नए कानून गढ़ने के फेर में पुराने कानून बदलना ही भूल जाते हैं। देश पुरातात्विक महत्व वाले कानूनों का एक दिलचस्प संग्रह बन गया है, वहीं नए कानून कुछ विसंगतियां पैदा कर देते हैं। प्रशासनिक विधि समीक्षा आयोग (कमीशन आन रिव्यू ऑफ एडमिनिस्ट्रेटिव लॉ) तो 12 साल पहले 1300 कानूनों को पुराने और अनुपयोगी बताकर बदलाव की सिफारिश कर चुका है लेकिन सरकारी कानूनों की सूची में दर्जनों पुराने कानून बाकायदा मौजूद और लागू हैं।
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